Kala Vimarsh
![]() |
उत्तर प्रदेश : कल, आज और कल
डॉ अनीता वर्मा
कहा जाता है कि किसी राज्य और साम्राज्य को
संपूर्णता में जानना हो तो वहाँ की संस्कृति को देखिए और जानिए, बहुत कुछ दृश्य से
परे भी स्वतः दिख जाएगा। वहाँ की समृद्धि और संभावनाओं का भी पता चल जाएगा और जब
बात उत्तर प्रदेश जैसे देश के बड़े और अनेक अर्थों में महत्त्वपूर्ण राज्य की हो तो
उसे जानने और समझने के लिए संस्कृति की ओर से ही शुरुवात करनी चाहिए । वैसे तो गत
वर्ष प्रकाशित पुस्तक उत्तर प्रदेश : कल आज और कल एक ऐसी पुस्तक है जिसके
अंतर्गत उत्तर प्रदेश की संस्कृति, सभ्यता, पर्यटन और धरोहरें, शिक्षा, साहित्य,
इतिहास, कला-परम्पराएँ, बोली-भाषा,
हस्तशिल्प एवं पहनावा, राजनीति, अर्थव्यवस्था और खेतीबाड़ी आदि अनेक
आयामों पर गहनता से पड़ताल की गई है पर साहित्य-कला के विभिन्न आयामों पर प्रस्तुत
सामग्री की विशेष चर्चा अपने में पुस्तक का एक महत्त्वपूर्ण खण्ड है, जिसके बहाने
पुस्तक पर यहाँ चर्चा की जा रही है।
पुस्तक उत्तर प्रदेश : कल आज और कल के
संपादक अमल मिश्र एक युवा लेखक हैं जो बचपन से ही अपने परिवार में और आसपास
कला-कर्म,
लिखना-पढ़ना देखते हुए बड़े हुए। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक
की पढ़ाई कर रहे अमल को बचपन से ही जो संस्कार मिले थे उसके साथ लिखने-पढ़ने,
कला-संस्कृति आदि से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ, उन्होंने उसका लाभ
उठाया और एक ऐसी पुस्तक का संपादन किया जो विभिन्न रुचिसम्पन्न पाठकों के लिए बहुत
उपयोगी है।
इस पुस्तक में बीस अध्यायों में विस्तारित उत्तर
प्रदेश के सभी क्षेत्रों-आयामों-विधाओं को छूने का प्रयास किया गया है। जिसका
प्रथम अध्याय ‘प्राचीन भारत और उत्तर प्रदेश’ दिनेश तिवारी (शोध छात्र - प्राचीन
भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ) द्वारा लिखा गया है। इसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के भौगोलिक
विस्तार, मानव की आदिम अवस्था व पाषाण काल पर चर्चा करते हुए
उसके विभाजन, पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नव पाषाण काल आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। हड़प्पा सभ्यता,
वैदिक काल, महाजनपद काल,
जैन एवं बौद्ध काल, मौर्य काल, शुंग
काल, कुषाण काल, गुप्त काल, हर्ष वर्धन काल और कन्नौज के त्रिकोणात्मक संघर्ष सहित सभी महत्त्वपूर्ण
ऐतिहासिक घटनाओं की विस्तृत और प्रामाणिक जानकारी दी है।
द्वितीय अध्याय ‘मध्यकालीन एवं आधुनिक उत्तर प्रदेश’ अभिषेक
सिंह (सहायक आचार्य, राजकीय
महाविद्यालय, मुल्थान, हिमाचल प्रदेश)
द्वारा लिखा गया है। इसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास
के आरम्भ से अंत तक प्रत्येक शासन एवं घटनाओं का जिक्र किया है - 1857 की क्रांति , राष्ट्रवाद का उदय , उत्तर प्रदेश में
कांग्रेस पार्टी का उदय व उनकी रणनीति,
संयुक्त प्रांत में जन विद्रोह,
साइमन कमीशन और उनका विरोध,
सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो
आंदोलन से लेकर अनेक क्रान्तियाँ,
उत्तर प्रदेश के महत्त्वपूर्ण स्थल- कपिलवस्तु, कुशीनगर,
कौशांबी, जौनपुर, झाँसी, देवगढ़, ललितपुर, प्रयागराज, फतेहपुर सीकरी, बाँसखेड़ा, बदायूँ, भीतरगाँव, मेरठ, राजघाट, लखनऊ सभी के
उल्लेखनीय आयामों की चर्चा है,
जिसे पढ़कर इस प्रदेश को समझ पाने की एक दृष्टि विकसित होती है।
तृतीय अध्याय ‘उत्तर प्रदेश की भौतिक संरचना और
विस्तार’ डॉ उपमा चतुर्वेदी (प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, अवध गर्ल्स डिग्री कॉलेज, लखनऊ) द्वारा उत्तर प्रदेश
की भौगोलिक अवस्थिति, भूगर्भिक अर्थात भूमि के अंतर्गत उस क्षेत्र
की मिट्टियों की बनावट तथा खनिज पदार्थ, भौतिक विभाजन में भाबर
एवं तराई क्षेत्र, मध्य का मैदानी क्षेत्र, दक्षिण का पहाड़ी क्षेत्र, अपवाह तंत्र और गंगा,
जमुना, रामगंगा, गोमती,
घाघरा, सोन आदि जैसी अनेक नदियों के विस्तार
और उपयोगिता के बहाने प्रदेश की भौगोलिक स्थिति की विधिवत चर्चा है जो प्रदेश के
जन-जीवन के आधार हैं।
चतुर्थ अध्याय ‘मौसम, ऋतुओं और मृदा की दृष्टि से उत्तर प्रदेश’ डॉ ऋतु जैन (सहायक प्रोफेसर,
भूगोल विभाग, नेशनल पी. जी. कॉलेज, लखनऊ) द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में उन्होंने उत्तर प्रदेश के जलवायु
एवं मृदा का विस्तृत वर्णन करते हुये जहाँ प्रदेश में ऋतुओं और तापमान की जन-जीवन,
फसलों और वनस्पतियों पर पड़ने वाले प्रभाव की विस्तृत चर्चा की है वहीं विभिन्न
प्रकार की मिट्टियों के प्राप्ति स्थल, उनकी प्रकृति, उनके विभिन्न कार्यों हेतु
उपयोग एवं संरक्षण के विषय में उपयोगी जानकारी दी है।
पञ्चम अध्याय ‘अधूरे सफर की दास्ताँ’ डॉ. गौरी
त्रिपाठी (विभागाध्यक्ष, हिंदी, गुरु
घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, कोनी, बिलासपुर) द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में साहित्य में उत्तर प्रदेश की
गौरवशाली भूमिका के महत्त्व को बड़े ही विस्तार से बताया गया है और प्रामाणिक रूप
से कहा गया है कि उत्तर प्रदेश की चर्चा के बगैर हिंदी साहित्य की कोई परिकल्पना
ही असंभव है। प्रदेश के हिन्दी साहित्य की चर्चा करते हुए नाथ साहित्य, रासो काव्य परम्परा भक्ति आंदोलन में जायसी, कबीर,
रहीम, रसखान, तुलसीदास,
सूरदास आदि के साहित्य के ध्यातव्य बिंदुओं की चर्चा करते हुए देश
की सांस्कृतिक राजधानी बनारस के साहित्यिक अवदान और कबीर का धार्मिक आडंबरों के
समर्थकों को अपने बेबाक स्वर में फटकारना, जायसी का पद्मावत
के बहाने लोक जीवन का अद्भुत चित्रण करना, मध्यकाल में कृष्ण
काव्य परम्परा का विस्तार, सूरदास और तुलसीदास का अवदान,
नजीर अकबराबादी, भारतेंदु हरीशचंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, श्याम सुंदर दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, बिहारी, हरिवंश राय बच्चन,
श्याम नारायण पांडे, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, भारत भूषणअग्रवाल, अमृतलाल नागर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रामचंद्र शुक्ल, डॉ. रामविलास शर्मा, सुमित्रानंदन पंत, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्या निवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, जगदीश गुप्त, कुँवर नारायण, रघुवीर
सहाय, गोपालदास नीरज, विश्वनाथ
त्रिपाठी, धर्मवीर भारती, चौथी राम,
शमशेर बहादुर सिंह, रामकुमार वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, कामता नाथ, काशीनाथ
सिंह, रवींद्र कालिया, ममता कालिया,
विभूति नारायण राय, मैत्रीय पुष्पा, प्रियंवद, अखिलेश, डॉ.
देवेंद्र आदि के साहित्यिक अवदान पर विहंगम दृष्टि डालते हुए वीरेन डंगवाल,
अरविंद चतुर्वेदी, पंकज चतुर्वेदी आदि की
रचनाधर्मिता को रेखांकित किया गया है।
षष्ठ अध्याय ‘संस्कृति उत्तरभूमि की’ गौरव कुमार
(शोधार्थी, हिंदी विभाग, बाबासाहेब
भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ) द्वारा लिखा
गया है। इसमें उन्होंने जीवन और समाज में संस्कृति के महत्त्व, उसकी विशेषताएँ, परम्पराएँ, प्रादेशिक
संस्कृति और उसके विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उत्तर प्रदेश में विविध
सांस्कृतिक संस्थानों की स्थापना, उत्तर प्रदेश के प्रमुख
सांस्कृतिक संस्थान, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी,
भारतेंदु नाट्य अकादमी, राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश, भातखण्डे संस्कृति विश्वविद्यालय,
राष्ट्रीय कथक संस्थान, उत्तर प्रदेश जैन विद्या
शोध संस्थान, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान, अंतरराष्ट्रीय रामायण एवं वैदिक शोध संस्थान, जनजाति
एवं लोक कला संस्कृति संस्थान, कला एवं शिल्प महाविद्यालय,
भारत कला भवन (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) आदि के कार्यक्षेत्र, उद्देश्य
और प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में इनके योगदान का समुचित उल्लेख किया है। उत्तर
प्रदेश की बोली भाषा के बारे में बताते हुए उत्तर प्रदेश की प्रमुख बोलियां एवं
उनके क्षेत्रों, ब्रजभाषा, बुंदेली,
कन्नौजी, कौरवी, अवधी,
भोजपुरी आदि तथा उत्तर प्रदेश के रीति-रिवाज एवं खान-पान पर भी विहंगम
दृष्टि डाली गयी है।
सप्तम अध्याय ‘उत्तर प्रदेश का हस्तशिल्प एवं पहनावा’ है जो डॉ. अनीता वर्मा (कला अध्यापिका, रामाधीन सिंह इंटर कॉलेज, लखनऊ) द्वारा लिखा गया है। इसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के हस्तशिल्प और वेषभूषा के पारम्परिक से आधुनिक प्रयोग और उसके क्रमवार विकास को रेखांकित करते हुए उल्लेखनीय हस्तशिल्प जैसे - चीनी मिट्टी के बर्तन, पीतल की कलाकृतियाँ, पत्थर के शिल्प एवं स्थापत्य, कालीन बुनाई, हस्त कशीदाकारी के अंतर्गत जरदोजी एवं चिकनकारी आदि की प्रविधि पर विस्तृत जानकारी दी है। अध्याय में प्राचीन एवं पारम्परिक परिधानों पर उकेरे जाने वाले अभिप्रायों के आधुनिक और प्रचलित कलाओं पर नवप्रयोग की भी चर्चा है।
लखनऊ की चिकनकारी
नवम् अध्याय ‘मंच कलाओं के मानचित्र पर उत्तर
प्रदेश’ डॉ मीरा दीक्षित (अवकाश प्राप्त सहायक आचार्य, भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय, लखनऊ) द्वारा लिखा
गया है । इस अध्याय में शास्त्रीय संगीत का परिचय, प्रदेश
में शास्त्रीय संगीत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, दरबारी संरक्षण
और संगीत का पुनर्जागरण, फारसी और भारतीय संगीत परंपराओं का
संश्लेषण, संगीत रूपों और वाद्य यंत्रों का विकास, शैलियों -
ध्रुपद और ख्याल, वाद्य संगीत, शहनाई
आदि के बारे में बताते हुए भक्ति रचना और लोक परम्पराओं पर भी चर्चा की गयी है। उत्तर
प्रदेश के घरानों के बहाने लखनऊ घराना, आगरा घराना, बनारस घराना, रामपुर घराना आदि उपयोगी जानकारियां
देते हुए उत्तर प्रदेश के प्रमुख शास्त्रीय गायन के कलाकारों - उस्ताद वज़ीर खान,
उस्ताद निसार हुसैन, उस्ताद राशिद खान,
पंडित छन्नू लाल मिश्र, गिरिजा देवी, सिद्धेश्वरी देवी, अजय पोहनकर, अनूप जलोटा, बेगम अख्तर, मालिनी
अवस्थी, पंडित गणेश प्रसाद मिश्र, डॉ.
सुरेंद्र शंकर अवस्थी, आस्था गोस्वामी आदि से सम्बंधित जानकारी
दी गई है। शास्त्रीय नृत्य का परिचय, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि,
वेषभूषा और आभूषण, भारतीय शास्त्रीय नृत्य एवं शास्त्रीय संगीत
वाद्ययंत्र का परिचय देते हुए सितार, सारंगी,शहनाई, बांसुरी, तबला, ढोलक आदि वाद्ययंत्रों के साथ कलाकारों के बारे में भी बताया गया है।
दशम अध्याय ‘उत्तर प्रदेश की रंगमंच की यात्रा’, गोपाल सिन्हा (प्रख्यात संस्कृतिविद, लखनऊ) द्वारा
लिखा गया है। इसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के रंगमंच के इतिहास की सम्यक जानकारी
दी है। 19वीं शताब्दी में प्रचलित और स्थापित रहे रासलीला,
रामलीला, नौटंकी आदि लोकधर्मी नाट्य परम्परा
के बारे में मौलिक और शोधपरक सामग्री उपलब्ध करायी गयी है। 20वीं सदी के बनारस में स्थापित शुरुवाती नाटक मंडलियों और अन्य सांस्कृतिक
संस्थाओं का विधिवत वर्णन है। साथ की पूरे प्रदेश पर विहंगम दृष्टि डालते हुए इलाहाबाद,
आगरा, कानपुर, मथुरा आदि
के रंगमंच के योगदान और वहाँ की संस्थाओं के बारे में चर्चा की गयी है। बताया गया
है कि किस तरह लखनऊ की प्रमुख नाट्य संस्थाएँ – दर्पण, मेघदूत, लक्रीस, खोज, सृष्टि,
रंगयोग, यायावर, विज़न,
कारवां, उदयन, आकांक्षा
थिएटर आदि लखनऊ के रंगमंच को सक्रिय रखने में नियमित योगदान दे रही थीं। 70 और 80 के दशकों में कई नाट्यकर्मी जैसे कुँवर
कल्याण सिंह, राज बिसारिया, के. बी. चंद्रा,
कुमुद नागर, डॉ. घनश्याम दास, हरीश जलोटा, संतराम शुक्ला, राजेश्वर बच्चन, उर्मिला कुमार थपलियाल, पुनीत अस्थाना, जितेंद्र मित्तल, ललित सिंह पोखरिया, चित्रा मोहन, चंद्र मोहन आदि नाटक निर्देशक के रूप
में रंगमंच से जुड़े। यह दशक लखनऊ रंगमंच के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। लेखक ने लिखा
है कि उत्तर प्रदेश के रंगमंच का इतिहास जितना गौरवशाली रहा, वर्तमान उतना ही
समृद्धशाली और संभावनाओं से भरा है। पर देखा जाये तो तब और अब में एक बड़ा अन्तर
यह जरूर आया है कि तब संसाधनों का अभाव था और आज का रंगमंच तकनीकी रूप से समृद्ध
और प्रयोगवादी हुआ है।
एकादश अध्याय ‘रामनगर की रामलीला’, डॉ. गरिमा टंडन (अतिथि व्याख्याता, भरतनाट्यम नृत्य,
नृत्य विभाग, भातखण्डे संस्कृति विश्वविद्यालय,
लखनऊ) द्वारा लिखा गया है। जिसमें बताया गया है कि उत्तर प्रदेश के
वाराणसी में स्थित रामनगर की रामलीला अपने में
बहुत अनूठी है जहाँ रामलीला के समय सम्पूर्ण नगर ही राममय हो जाता है। लीला
का प्रत्येक दर्शक लीला का पात्र बन जाता है और रामलीला कहीं जनसाधारण के लिए
धार्मिक अनुष्ठान तो कहीं नाटक रूपी मनोरंजन बन जाती है। प्रस्तुत अध्याय में
रामलीला का अर्थ बताया गया है कि लीला अर्थात क्रीडा, विनोद,
आनंद, खेल, मनोरंजन आदि
वह खेल जिसमें प्रभु श्री राम की कथा को प्रस्तुत किया जाए वह है 'रामलीला'। रामनगर की रामलीला का इतिहास बताया गया है
कि 18वीं 19वीं शताब्दी में राजा बलवंत
सिंह ने चित्रकूट, जनकपुर एवं अयोध्या के रामानंदी साधुओं से
अच्छे सम्बन्ध रखने को रामलीला को मजबूत माध्यम बनाया। उनके अनुसार आज रामनगर के
रामलीला का जो स्वरूप मिलता है उसकी नींव राजा उदित नारायण सिंह ने रखी थी। इन्हें
ही रामनगर की रामलीला का संस्थापक कहा जाता है। रामलीला के पात्रों की भूमिकाएं
पुरुषों द्वारा निर्वाह की जाती हैं और उनकी रूप-सज्जा, वेशभूषा
का ध्यान भी रखा जाता है।
द्वादश अध्याय ‘उत्तर प्रदेश का पर्यटन एवं धरोहरें’
अमल मिश्र (लेखक/स्तंभकार एवं इस पुस्तक के संपादक) द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय
में उन्होंने उत्तर प्रदेश के महत्त्वपूर्ण पर्यटक स्थलों एवं धरोहरों के इतिहास
और सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन है। पर्यटन को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर -
पर्यावरण पर्यटन, धार्मिक पर्यटन, व्यावसायिक पर्यटन, खेल पर्यटन, वन्य जीव पर्यटन, पर्यावरणीय पर्यटन आदि के आधार पर उसे आज की तकनीकों और
संसाधन के साथ स्थानीय विशेषताओं के अनुसार विकसित करने के बारे में शोधपरक तथ्यों
और जानकारियों के साथ प्रस्तुत किया गया है। प्रदेश के प्रमुख पर्यटन स्थल जैसे- ताज
महल जो प्रेम और स्थापत्य का अद्वितीय उदाहरण है, लखनऊ लक्ष्मण
का बसाया सौहार्द का नगर, नवाबी संस्कृति और ऐतिहासिक धरोहरों की भूमि है, प्रयागराज संगम की पवित्रता और ऐतिहासिक महत्व का उदाहरण है, अयोध्या रामायण का ऐतिहासिक स्थल है, गोरखपुर आस्था
का प्रतीक, गोरक्षधाम और स्वतंत्रता संग्राम स्मारक - चौरी चौरा के लिए प्रसिद्ध
है, झाँसी रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी सुनाता है,
लखीमपुर खीरी दुधवा नेशनल पार्क के लिए जाना जाता है, सारनाथ अपने
बहुत तीर्थ स्थल के लिए जाना जाता है, आदि के महत्व और उनकी
विशेषता को पूर्ण रुपेण बताया गया है।
त्रयोदश अध्याय ‘फल-फूल तरकारी एवं फसलें’ डॉ
संजीव कुमार यादव, डॉ. एस. सी. विमल, स्मिता अग्रवाल, विनय कुमार चौरसिया एवं अशोक कुमार
द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्वपूर्ण
योगदान को बताया गया है। उत्तर प्रदेश की कृषि के लिए विभिन्न जलवायु क्षेत्र - भाबर
एवं तराई क्षेत्र, पश्चिम मैदानी क्षेत्र, मध्य पश्चिमी मैदानी क्षेत्र, दक्षिणी पश्चिमी उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र,
मध्य मैदानी क्षेत्र, बुन्देलखण्ड क्षेत्र,
पूर्वी मैदानी क्षेत्र, उत्तर पूर्वी मैदानी
क्षेत्र, विंध्य क्षेत्र आदि पर प्रामाणिक तथ्यों के साथ
विस्तार से चर्चा की गयी है। साथ ही उत्तर प्रदेश की फसलों - खरीफ, रवि, जायद आदि के उत्पादन और यहाँ उगाई जाने वाली
फसलों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। उत्तर प्रदेश के प्रमुख फल उत्पादक जिले
जैसे - आम, अमरूद, आंवला, केला आदि के बारे में बताते हुए उत्तर प्रदेश में सब्जी एवं मसाला उत्पादन,
औषधीय पौधों की खेती , गन्ने की वैज्ञानिक खेती, आलू की उन्नत खेती, फसल सुरक्षा, खरपतवार प्रबंधन, कीट प्रबंधन, कटाई-बंधाई तथा भण्डारण आदि का वर्णन किया गया है।
चतुर्दश अध्याय ‘उत्तर प्रदेश में पशुपालन’ डॉ.
संजीव कुमार यादव, डॉ. एस. सी. विमल, अंकिता कुमारी एवं डॉ. प्रकृति चौहान द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में
पशुपालन की परम्परागतगत जड़ें, पशुपालन के तरीके, विभिन्न क्षेत्रों के स्थानीय पशु, उत्तर प्रदेश में
पशुपालन की स्थिति एवं पशुपालन का महत्व को दर्शाया गया है साथ ही यह भी बताया गया
है कि इसका प्रदेश के आर्थिक विकास, पोषण सुरक्षा, रोजगार सृजन आदि में क्या महत्त्व है और जैविक खाद, कृषि
आधार एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में उत्तर प्रदेश की पशुपालन के माध्यम से किस
प्रकार उपस्थिति है। पशुपालन के क्षेत्र में सरकार द्वारा की गई पहल, प्रभावकारी नीतियां, पशु प्रजनन सेवाएं, पशुधन
विपणन विकास आदि की तथ्यों के साथ की गयी चर्चा अध्याय को महत्त्वपूर्ण बनाती है।
पञ्चदश अध्याय ‘विधायिका कार्यपालिका एवं
न्यायपालिका’ डॉ.
राजीव कुमार (असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीतिक विज्ञान विभाग,
पीजेडीएम महाविद्यालय, सिकरी, तंबौर, सीतापुर)
द्वारा लिखा गया है। अध्याय में उत्तर प्रदेश के गठन, प्राचीन सभ्यता, संस्कृति व धार्मिक मान्यताओं तथा त्यौहार
और परंपराओं की पड़ताल की गयी है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का विवरण, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक संरचना, उत्तर प्रदेश के
राज्य विधान मंडल की संरचना, विधान सभा-विधान परिषद, प्रशासनिक संरचना, उत्तर प्रदेश की कार्यपालिका की
संरचना, उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्वशासन की संरचना,
शहरी-स्थानीय स्वशासन,
उत्तर प्रदेश की न्यायिक संरचना आदि का सविस्तार वर्णन किया
गया है।
विधान भवन, उत्तर प्रदेश
षोडश अध्याय ‘उत्तर प्रदेश की पंचायती
राजव्यवस्था’ आचार्य शशिकान्त पाण्डेय एवं विकास तिवारी (राजनीति विज्ञान विभाग, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ)
द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में पंचायती राज व्यवस्था पर विहंगम दृष्टि,
पंचायती राज व्यवस्था का विकास, उत्तर प्रदेश
में पंचायतों के चुनाव की पद्धति, पंचायत में प्रतिनिधित्व
की व्यवस्था, उत्तर प्रदेश में पंचायती व्यवस्था के कार्य,
पंचायत समिति के कार्य, जिला परिषद के कार्य,
उत्तर प्रदेश में पंचायतों की संरचना व्यवस्था, ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत की संरचना
आदि का विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है ।
सप्तदश अध्याय
‘उत्तर प्रदेश में शिक्षा, साहित्य एवं खेलकूद’ रुचि सागर (प्रवक्ता-शिक्षाशास्त्र, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान खैराबाद, सीतापुर) एवं
मोनिका गौतम (प्रवक्ता-समाजकार्य, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान खैराबाद, सीतापुर) द्वारा लिखा गया है जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश
में शिक्षा, साहित्य एवं खेलकूद
से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की संस्थाओं, सुविधाओं, महत्व और उनकी समाज के प्रति सहभागिता एवं उपयोगिता को
दर्शाया गया है। अध्याय में समस्त सरकारी नीतियों और
उनके प्रभावी क्रियान्वयन के फलस्वरूप निरन्तर शिक्षा के स्तर में हो रहे सुधार और
प्रमुख शिक्षा संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों का जिक्र है।
अष्टादश अध्याय
‘उत्तर प्रदेश में खेलों का विकास और स्थिति’
डॉ. सीमा पाण्डेय (सह आचार्य नवयुग कन्या महाविद्यालय, लखनऊ) द्वारा लिखा गया है। इस अध्याय में उत्तर प्रदेश के
खेल-कूद एवं शारीरिक शिक्षा में किये सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों और उपलब्धियों का
सविस्तार वर्णन है। के डी सिंह बाबू स्टेडियम, लखनऊ, अटल बिहारी वाजपेई इकाना क्रिकेट स्टेडियम, बाबू बनारसी दास यूपी
बैडमिंटन अकादेमी, मोहम्मद शाहिद सिंथेटिक हॉकी स्टेडियम, गुरु गोविन्द सिंह
स्पोर्ट्स कॉलेज, सहारा स्टेट क्रिकेट अकादमी, यूनिवर्सिटी ग्राउंड, लखनऊ, विजयंत खण्ड स्टेडियम, साईं सेंटर लखनऊ, क्रिश्चियन कॉलेज एवं लखनऊ के
विभिन्न अखाड़ों इत्यादि का जिक्र करते हुए प्रदेश की विभिन्न खेल गतिविधियों से
जुड़े केन्द्रों का विस्तार वर्णन किया गया है। प्रदेश में उपलब्ध प्रमुख खेल
सुविधाएं जैसे- खेल परिसर, जिम्नेजियम, स्विमिंग पूल, योग और ध्यान केंद्र इत्यादि
के बारे में भी बताया गया है। खेल नीति के अंतर्गत ‘यूपी खेलेगा यूपी जीतेगा’ के
तहत राज्य में खेल और खिलाड़ियों के स्तर को लगातार समृद्ध किया जा रहा है। पुस्तक
में उत्तर प्रदेश में खेल संस्थाओं के इतिहास एवं उनके महत्त्व को भी बताया गया
है।
नवदश अध्याय
‘वैश्विक अर्थव्यवस्था की पुनर्स्थापना : उत्तर प्रदेश का
विकास नमूना’ के अंतर्गत अध्याय के लेखक श्रीनिवास त्रिपाठी (वित्त अधिकारी, डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ) ने उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढाँचे और
विकास पर प्रकाश डालते हुए प्रदेश का एक विकास नमूना प्रस्तावित किया है। बताया है
कि यहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि, पशुपालन, हस्तशिल्प, विनिर्माण
एवं बड़ी संख्या में सेवा उद्योगों पर केंद्रित है। पिछले कुछ दशकों से भारतीय
अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया जा रहा है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बाजारों को
वैश्विक बाजार से एकीकृत कर रही है जिसके कारण समाज में उपभोक्तावाद बढ़ रहा है।
ग्रामीण औद्योगीकरण की आवश्कता को देखते हुए उसको सतत बनाए रखने हेतु ग्रामीण
औद्योगीकरण हेतु वहाँ की उत्पादकता, कौशल और आवागमन के माध्यमों तथा बड़े नगरों से जुड़ाव को देखते हुए एक
विकास नमूने को क्षेत्रवार विशिष्टताओं के दृष्टिगत प्रस्तावित किया गया है जिसे
ज़मीनी स्तर पर लागू किया जा सकता है। कृषि के व्यवसायीकरण की सभी प्रक्रियाएं, लघु एवं मध्यम उद्योग, उत्तर प्रदेश के 18 मंडल और 75
जिलों में विभाजित करते हुए प्रत्येक जिलों, कस्बों एवं इलाकाई केन्द्रों में, जो
जिस उद्योग के लिए महत्त्वपूर्ण है और हो सकता है, की क्षमता और सम्भावनाओं को
देखते हुए विस्तृत चर्चा की गई है जो प्रदेश के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती
है।
विंशति अध्याय
‘उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था: कल, आज और कल. डॉ. पूनम वर्मा (विभागाध्यक्ष एवं सह आचार्य - अर्थशास्त्र,
नेता जी सुभाष चंद्र बोस राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लखनऊ) द्वारा लिखा गया है इस अध्याय में उन्होंने उत्तर
प्रदेश की अर्थव्यवस्था का परिचय देते हुए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वर्तमान आर्थिक परिदृश्य, आर्थिक चुनौतियाँ क्या हो सकती हैं, की चर्चा करते हुए भविष्य
में उसके दृष्टिकोण और क्या क्षमता विकसित की जानी चाहिए, के बारे में बताया है।
प्रदेश के आर्थिक
विकास में तेजी लाने के लिए नीतिगत उपायों की तथ्यपरक चर्चा की गई है।
प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ने
के उपरान्त उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की कला, साहित्य, खेलकूद, संगीत के विभिन्न आयामों, पर्यटन, अर्थव्यवस्था, बोली-भाषा और पहनावा, संस्कृति-सभ्यता, अर्थव्यवस्था, राजनीति इत्यादि की
पृष्ठभूमि, आज के सन्दर्भ, विशेषताओं और उनके महत्व तथा समाज से उसके सरोकार के
विभिन्न स्तर को जानने का अवसर प्राप्त होता है। लेखकों ने तो सरल और प्रवाहपूर्ण
सुगम्य भाषा का प्रयोग करते हुए अध्याय को लिखा ही है परंतु सम्पादक अमल मिश्र ने इन
अध्यायों को भाषा, तथ्यात्मक प्रामाणिकता और सुग्राह्यता के स्तर पर परिमार्जित
करते हुए जिस प्रकार अनुस्यूत कर इसे पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत किया है, सराहनीय
है। इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर प्रदेश को सम्पूर्णता में एक विहंगम दृष्टि से जाना,
पहचाना और अन्तरंग-परिचय प्राप्त किया जा सकता है। यह पुस्तक अध्येताओं, अध्यापकों, साहित्यकारों, कला रसिकों, राजनीति-शास्त्रियों, इतिहासकारों, भूगोल-वेत्ताओं,
पर्यटकों, संस्कृतिविदों, कृषकों-पशुपालकों एवं अर्थशास्त्रियों के लिए सामानांतर
रूप से महत्त्वपूर्ण हो सकती है ।
पुस्तक : उत्तर प्रदेश : कल, आज और कल, संपादक : अमल मिश्र. प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई, मूल्य : रू 599/- (पेपर बैक)
अखिलेश की किताब ‘के विरुद्ध स्वामीनाथन एक पक्ष’ हिन्द स्वराज की शैली में लिखी गई है, यानी प्रश्नोत्तर शैली में औपनिषदिक विन्यास जिसे हम कह सकते है। पृष्ठ ८७ पर वे स्वामीनाथन की चित्रों में आये तांत्रिक प्रभाव की बात करते है, जहाँ वे गीता कपूर का स्वामीनाथन के चित्रों पर तांत्रिक प्रभाव के संदर्भ में उद्धरण देते है; ‘स्वामीनाथन की कला पर तांत्रिक प्रभाव अवश्य था मगर अर्थपूर्ण चित्रात्मक ब्रह्मांडिकी का दावा अधिक देर तक टिक नहीं सकता था’। तांत्रिक चित्रों की अपनी स्वतंत्र कॉस्मोलॉजी होती है, स्वामीनाथन के पास वह कॉस्मोलॉजी नहीं थी इसकी खोज करने वह काशी जाते है। संन्यासियों का सानिध्य करते है और किताब अब पूर्णत: औपनिषदिक होने लगती है।
एक बाबा स्वामीनाथन को कहता है, “जा भाग— अब यहाँ नहीं आना— बच्चा ढोंग करता है।” इस किताब की समीक्षा लिखते हुए मैं भी दो या तीन बार ढोंगी हो गया था। मैंने एक बार यह झूठ कहा कि मैंने समीक्षा लिख दी है और नहीं लिखी थी। यह ढोंग उतना बड़ा नहीं है जितने बड़े ढोंग का शिकार मैं लिखते हुए हुआ। किताब पढ़ते हुए मैं कई स्थानों पर फँस गया जैसे बहुत बरसात के बाद एक गाँव से दूसरे गाँव जाती बैलगाड़ी गहन अरण्य के कीचड़ भरे रस्ते में फँस जाती है और उस बैलगाड़ी में बैठा पण्डित जो दूसरे गाँव सत्यनारायण की कथा करवाने जा रहा है उसे गाड़ी में बैठे बैठे ही यह भ्रम हो जाए कि वह दूसरे गाँव पहुँच गया है उसने कथा करवा दी है, अब पंचामृत चाटकर वह खीर पूड़ियाँ खा रहा है। ऐसा गाँजा पीनेवालों को, भाँग खानेवालों को बहुत होता है और यह स्वामीनाथन भी बनारस में देखते है, जब साधुओं का दल “गंगा का समय हो गया” कहते हुए गाँजा और भांग पीने चले जाते है। फिर ब्रह्म और भ्रम में बहुत दूरी भी नहीं है, हम जब देवनागरी लिखना सीखते है तब भ्रम को अक्सर ब्रह्म और ब्रह्म को भ्रम लिख देते है फिर काटते है और फिर लिखते है क्योंकि हम ठीक उसे ही संप्रेषित करना चाहते है जो हमारे भीतर है इसे स्वामीनाथन “भाषा का नियमित विकास व्यग्रता के विकास और आश्चर्यबोध की मृत्यु का भी इतिहास है” बताते है, उनके अनुसार “संप्रेषण के रूप में भाषा के ताने बाने को छोड़ते हुए, जिस तरह कि मैली कुचैली क़मीज़ उतारी जाती है, जिससे कि शब्द समागम के रूप में प्रकट हो सके, जिससे कि इन्द्रिय ज्ञान से उद्दीप्त अंतर्ज्ञान मिले और चीख तथा खिलखिलाहट को फिर से अर्थ मिले।”
इस किताब के बारे में लिखते हुए मुझे भी भ्रम हो गया कि मैं ब्रह्म लिख रहा हूँ, सत्यनारायण की कथा करवाने जाते उस भंगेड़ी पंडित की तरह, यही भ्रम अक्सर स्वामीनाथन के चित्रों के आगे खड़े लोगों को भी हो जाता है। इस किताब की सबसे बड़ी सफलता इसी भ्रम को तोड़ने की है, यह बताने में है कि जिसे आप ब्रह्म पढ़ रहे है है वह भ्रम है और यह जानना ही ब्रह्म को प्राप्त करना है। पढ़ते हुए भी हम इसी पड़कर भ्रम के शिकार होते है जब हमें लगता है कि हम जो पढ़ रहे है वह न केवल वही है जो लेखक संप्रेषित करना चाहता है बल्कि हम उसे समझ भी रहे है।
दूसरे दिन स्वामीनाथन दूसरे अखाड़े में पहुँच जाते है, किसी दूसरे बाबा के सामने, दूसरे बाबा से वे बात शुरू करना चाहते है नचिकेता से, बाबा कहता है, “पता है पता है, कल तू बता न पाया था, चौथा वर क्या दिया पूछा और तू तीसरे पर चला गया। यह चंचलता ठीक नहीं। मन से नहीं बुद्धि से सोच। इतना अधीर न हो। बता क्या था चौथा वर?” स्वामी विस्मित होते है। “क्या विचार भी यात्रा करते हैं। राजघाट पर बसे इस अखाड़े के महाराज को कल अस्सीघाट पर हुए वार्तालाप के बारे में कैसे पता चला?”
नोबेल विजेता भौतिकीविद् इरविन श्रोदिंगर (Erwin Schrödinger) की भारतीय दर्शन में अचूक गति थी, एक जगह वे लिखते है,
“यदि वास्तव में इस संसार का निर्माण हमारे अवलोकन के कार्य से होता है, तो ऐसे अरबों संसार होने चाहिए — हम में से प्रत्येक के लिए एक-एक। फिर तुम्हारा संसार और मेरा संसार एक जैसा कैसे है? यदि मेरे संसार में कुछ घटित होता है, तो क्या वह तुम्हारे संसार में भी घटित होता है? सभी संसार एक साथ कैसे सामंजस्य में चलते हैं?”
स्पष्टतः केवल एक ही संभावना है — हमारी चेतनाओं का अद्वैत । उनकी बहुलता केवल आभासी है; वस्तुतः केवल एक ही चेतना है। यही उपनिषदों का सिद्धांत है।
(If the world is indeed created by our act of observation, there should be billions of such worlds, one for each of us. How come your world and my world are the same? If something happens in my world, does it happen in your world, too? What causes all these worlds to synchronize with each other?”
There is obviously only one alternative, namely the unification of minds or consciousnesses. Their multiplicity is only apparent, in truth there is only one mind. This is the doctrine of the Upanishads.)
कहानियाँ और उपन्यास लिखनेवाले का मन इस दुनिया में क्या रहता है? वे एक भिन्न सत्य, गल्प निर्मित जगत में रहते है जहाँ असत् अर्थात् झूठ ही झूठ होता है और इसलिए उनकी चेतना में वह नहीं घट रहा होता जो दूसरे अन्यों की चेतना में घटता है। इस दृष्टि से देखे तो दुनिया में असत् या झूठ कुछ है ही नहीं। अलग हो सकता है असत् नहीं। सत् जिससे सत्य शब्द बना है उसका अर्थ है “जो है”, झूठ या असत् भी तो है। यह कौन कह सकता है कि संसार में झूठ नहीं है। मृत्यु और आत्मा के विषय में प्रश्न करने पर बाबा स्वामी को खालिद जावेद का उपन्यास ‘मौत की किताब’ पढ़ने को कहते है, २५ अप्रैल १९९४ को स्वामीनाथन की मृत्यु हो जाती है जब ‘मौत की किताब’ २०२५ में प्रकाशित होती है। हालांकि लेखक इसे स्वामीनाथन की जीवनी न कहकर स्वामी के बारे में है और इसलिए ही यह जो है और जो नहीं है उनके बीच अबाध विचरण करती है।
पृष्ठ ४३ पर स्वामीनाथन पश्चिम के प्रभुत्व को नकारते हुए पश्चिम के आधुनिक कला आंदोलन के विषय में कहते है, “और चूँकि यह आंदोलन ‘मैं-तू’ संबंध से पैदा हुआ है इसलिए शुरू से ही ग़लत रास्ते पर है—”; मैं और तू केवल एक और दूसरे व्यक्ति का फ़र्क़ नहीं है। यह देकार्ते का “मैं और तू” (subject/object) भी है, पश्चिम की दुनिया को संभवतः सबसे बड़ी देन और शायद सबसे बड़ा अभिशाप भी। देकार्ते से पहले मानवता मन और शरीर के द्वैत से ग्रस्त नहीं थी, भारतीय मनीषा के मन-बुद्धि-चित्त अहंकार एक ही इकाई के भाग थे, वहाँ देखनेवाले और दृश्य में विभेद न था। स्वामीनाथन देखनेवाले और दृश्य के अभेद तक पहुँचना चाहते है। पढ़ते हुए आप अनुभव करते है कि अखिलेश के लिए इसे लिखना कितना कठिन रहा होगा। सबसे पहले तो विचार और भाषा के अभेद को प्राप्त करना और फिर उसे ऐसे प्रकट करना कि वह विचार (अथवा वाक्य) पढ़नेवाले से अभिन्न हो जाए। विचार को अनुभव में बदलने की इस प्रक्रिया के कारण ही यह किताब आनेवाले वर्षों में पढ़ी जाती रहेगी। अंग्रेज़ी में जिसे felt reading कहा जाता है, जिसका उचित हिंदी पर्याय मुझे दिमाग़ पर ज़ोर डालने पर भी नहीं सूझ रहा, इस किताब का इस felt reading से इतर कोई पाठ संभव नहीं है जैसे स्वामीनाथन के चित्रों को देखना रूपांतरित करनेवाले अनुभव (transformative experience) हो सकता है, रूप देखकर स्वरूप बदलने की प्रक्रिया हो सकती है, उसी तरह इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए स्वामी को समझने के लिए तो निश्चय ही बल्कि उससे बढ़कर भारतीय कला और मनीषा को समझने के लिए।
स्वामी के हवाले से किताब यह सवाल भी उठाती है कि क्या हम कला को समझ भी सकते है, उसका विश्लेषण कर सकते है? हम केवल यह जान सकते है कि उसमें अनंत सम्भावनाएँ होती है, अनंत मतलब यह कि हम उन्हें कभी पूरी तरह से नहीं जान सकते, हमेशा कुछ शेष रह जाता है, भगवान विष्णु जिस पर लेटते है उस शेषनाग की तरह। अख़बार में छपे वाक्य और कविता में छपे दोनों वाक्य अपनी संरचना और शब्दों में भले हुबहू हो मगर कविता के वाक्य में अनंत संभावनाएं होती है जबकि अखबार के वाक्य का अर्थ मात्र एक होता है।
किताब के लेखक अखिलेश ने एक बार मुझे ह्वाट्सऐप पर फटकार लगाई थी, “क्या आप अपने लिखे और कहे गए शब्दों पर विश्वास करते है?” अनंत अर्थों की सम्भावनाओं वाले शब्दों पर इतना विश्वास तो किया जा सकता है कि उनमें अर्थ होगा मगर कौन कौन से अर्थ होंगे इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और अनंत संभावनाओं में से एक बार में यदि एक संभव चुनने का अवकाश है तो मैं वह अर्थ चुनूँगा जो वे चुनेंगे इसकी संभावना भी बहुत क्षीण है।
स्वामी के विषय में किताब से पता चलता है कि वे पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर से राग बिहारी सुनाने की हमेशा फ़रमाइश करते थे। बिहारी का अर्थ है बिहार अर्थात् घूमने या भटकनेवाला, राग की बंदिश भी कुछ यूँ है, “नींद न आए…”, इसी तरह यह किताब भी स्वामी के संग बहुत जगह भटकती है और यदि पूछूँ कि पहुँचती कहाँ है? वापस वहीं आ जाती है जहाँ से हम चले थे। जैसे लोग घर लौट आते है मगर बदलकर। स्वामी को समझने से अधिक किताब यह समझने के बारे में है कि स्वामी को समझने की अनंत संभावनाएं अनंत प्रकार हो सकते है।
और फिर किसी को समझने का प्रयास ऐसा भी हो सकता है जैसे वैज्ञानिक वस्तु को समझते है, उसे भिन्न मानकर, कला को ऐसे नहीं समझा जा सकता या यों कहना चाहिए कि जैसे ही किसी को समझने का हम प्रयास करते है उससे हमारा अलगाव हो जाता है (हम उसे alienate कर लेते है) इसलिए अखिलेश किताब की बिलकुल शुरुआत में ही लिखते है कि किताब स्वामीनाथन के बारे में है, समझने का कोई दावा नहीं करते। किताब के विषय और लेखक में सबसे कम दूरी का यह किताब उदाहरण है। दूरी मगर अद्वय नहीं। ऐसा क्यों है? प्रथम पुरुष में इर्विंग स्टोन की तरह भी तो यह किताब लिखी जा सकती थी? हिन्द स्वराजी ढंग फिर क्यों अपनाया? क्योंकि स्वामी गांधी से बहुत प्रभावित थे और यह कि अंग्रेज़ी कहावत direct from horse’s mouth पर लेखक को विश्वास नहीं, उनके अनुसार घोड़े बोल नहीं सकते। यदि बोल सकते तो भी क्या हम उन्हें समझ पाते! इस तरह यह किताब स्वामी से उतनी दूर भी नहीं जाती कि उनका विश्लेषण करने लगे और इतनी पास भी नहीं कि लेखक अखिलेश स्वामी बन जाए, घोड़े के बोलने और घोड़े की एनाटॉमी परखने के बीच इसकी दृष्टि घोड़े की आँख पर केंद्रित है, जहाँ आँसू है मगर अभी तक प्रकट नहीं हुआ है। किसी भी कलाकृति की तरह यह किताब भी कल्पना को संबोधित करती है मनुष्य को नहीं, कल्पना के पंख खोलने की बात पन्ना नम्बर १६९ पर लेखक करता भी है।
जैसे सृष्टि मनुष्य केंद्रित नहीं, मनुष्य को संबोधित विशेष नहीं करती उसी तरह कलाएँ भी नहीं होती। वे कल्पना के आसपास डोलती है, उसी को संबोधित करती है। स्मृति को स्वामी शब्द और छवि से बना बताते है, बिना छवि के कोई स्मृति नहीं होती, और बिना शब्द के छवि नहीं हो सकती जैसे बिना छवि के शब्द नहीं होता। स्वामी इन्हीं शब्द और छवि से चित्र बनाते है। स्मृति का एक स्वभाव है दोहराना, दोहराया स्मरण रखने के लिए भी जाता है और दोहराने अर्थात् रटने से हम भूल भी जाते है।
कलाकार भी ख़ुद को दोहराते है, कलाकार दोहराने से डरते भी है, हमेशा नया करने के दबाव में वे रहते है। अखिलेश लिखते है कि जैसे प्रकृति नहीं दोहराती कलाकार भी नहीं दोहराता। ख़ुद को दोहराने से मैं भी बहुत डरता था, लेखक अक्सर डरते भी है। तब मैंने देखा चित्रकार ख़ुद को दोहराने से नहीं डरते, संगीतकार नहीं डरते, बड़े बड़े शेफ नहीं डरते, लेखक क्यों डरते है? वे इसलिए नहीं डरते क्योंकि जानते है दोहराना संभव ही नहीं लेखक इसलिए डरते है क्योंकि उनकी कला इंद्रियगम्य (tactile) नहीं होती, उन्हें यह जानना चाहिए कि कोई शब्द दुबारा नहीं लिखा जा सकता भले वर्तनी वही हो।
अब तक इस पुस्तक से मैं इतना ही जान सका हूँ मगर इसकी अनंत संभावनाओं को अभी तक मैंने समाप्त नहीं किया है, गल्प की तरह इसे बार बार पढ़ना होगा। यही वजह है कि कई बार इसकी समीक्षा करते करते मैं रह गया, झूठ बोलता गया क्योंकि मुझे पता नहीं था कि केवल तांत्रिक ही मंत्र नहीं दोहराता पाठक को भी दोहराना पड़ता है। मैं अभिमानी था एक बार पढ़कर उस रहस्य को जानना चाहता था जो अनंत बार पढ़कर भी शेष रह जाएगा, इसे आप स्वरूप कह सकते है यदि स्वामीनाथन न कह पाए।
Link :
Faces, Figures and Fantasies
A Love Affair with Drawings: Vrindavan Solanki
Johny ML
“Drawing is not the Ianguage of painters but the language of nature which one should listen to.” -Pablo Picasso
Drawings are variously defined by different artists, and all of them hold that the constituent structures of drawings are lines. One of the prominent modern artists, Paul Klee once said that ‘line is a dot that went for a walk.’ Some say drawing is a practice that helps the artist to hone his skills. Some others say that it brings out the essential qualities of the artist. Whatever, the definition that one could use to explain ‘drawings’ none of them fully encapsulates the crux of it because it is one art genre that lies beyond the definitions. Artists from the very beginning of human history have been drawing ‘in order to express themselves’ but there has never been a drawing in the world that faithfully emulated the other drawing/s. The reason is simple; a drawing is like a thumb impression, inimitable. However, conventionally and technically speaking, drawing is a form created on a two-dimensional surface using ‘lines.’ Hence, line is the common constituent in any drawing. That means, excelling in the use of lines is what makes a good draughtsman. But all good draughtsmen are not good artists. But most of the good artists are good draughtsmen also.
Even a cursory look at the vast number of drawings that Solanki has produced, reveals his irresistible urge to ‘capture’ the essence of what he sees right in front of him. It is registration of the ‘visual event’ on the one level and seen from another vantage point of art history it is the ‘visual interpretation’ of the event itself. Here the word ‘event’ means something happening right in front of the eyes.
Solanki has a roving eye as nothing escapes his visual keen perception. He is always equipped with a drawing pad and ink or oil pastels, registering his mental impressions of the scenes which, for the lack of another generic name, we call ‘drawings’. Solanki, the master craftsman (il miglior fabro in Italian, a phrase that T.S. Eliot used to poetically address Dante) interprets life with lines.
One of his early
drawings titled ‘My Mother’
(1963) exemplifies Solanki's strength of
the lines and the feeling for for his subject. His mother whom he has always
held in high esteem becomes an oft-repeated model where initially she is
represented through/by very strict lines, like the lines in a crystal glass,
and later as the years pass, we see the lines becoming fluid and the
characteristic features less defined; in a way we could say that the artist's
mother transforms into a universal mother concept. These drawings have to be
studied in parallel with his self-portraits. The early self portraits are
deliberated in a Picasso-esque fashion (Solanki always reminds one of the
personality of Picasso). However, as he matures as an artist and his drawing
strategies change, the self-portraits take a turn a la Gustav Courbet and later
on like those of Rembrandt.
Solanki has drawn
people, places, architecture, animals, birds, machines, factories, abstract
forms, wilderness and so on. The drawings done during 1960s and 70s show the
viewers how the artist was taking in each and every life experience and
converting them into a perspective. The crystal sharp lines reach the level of
cross hatching when Solanki captured places but they loosen up when he drew the
scenes where people were the central images. Though Solanki, in his early
drawings had drawn people as individuals and groups, he never put them within
geographical boundaries. They are people, particularly the rural people,
wearing ethnic clothes and carrying occupational paraphernalia. Solanki had
developed a strong affinity for the people in rural Gujarat where people led a
life that was fundamentally different from the life in urban places.
The affinity for the
rural people or the rural vistas has not stopped Solanki from loving the people
and places elsewhere. Whenever he travels, he makes it a point to do the
sketches not as preparatory drawings for paintings (in fact, he has hardly
converted his sketches into paintings except for the ‘faceless’ people). Even if
the main mediums that he uses to create his drawings are ink and oil pastels,
depending on the atmospheric quality and general mood of the new place/space,
Solanki changes the ways of application of these on the drawing surface. The
vacant spaces that we see in his Indian drawings are filled with hazy lines and
hues in order to justify the hazy greyness of the western countries. All those
drawings that Solanki has done during his travels in the US, Europe and other
places, are the tell-tale evidences of this point of view. His foreign travels
have helped him in creating drawings with images that are not quite usual
within the Indian ethos. There are two sets of drawings; one, a series of
kisse(r)s and park bench activities, two, a series of nude drawings.
While drawing,
Solanki sheds his male gaze. Unlike the proverbial modern artist, who is
definitely a male, Iooking at and consuming his female models, Solanki
approaches his models leaving his intrusive and authoritative male gaze behind.
Here is an artist who just looks at the person/s before him as people with
individuality whose privacy has to be respected. Perhaps, this non-invasive
gaze justifies the early and later drawings of rural people who are often seen
from behind. The artist has taken a rear side position so that he could see
them from behind. He does not objectify them. Besides, it is pertinent to know
that Solanki takes an even/equal plane with his models. He sheds his artistic
authority in order to maintain the human love for his subjects, and he chooses
a place of sameness; this translates into a sort of equality and democratic
occupation of space that does not give any special vantage point to the artist.
This equal stance with his subjects is something that makes Solanki's drawings
very palatable.
Solanki uses ink very effectively in his drawings of animals and birds besides the buildings, and at times portraits, character studies and self-portraits. There was also a phase in his drawing career when Solanki made drawings without lines. They are simple ink blots and washes, done through inspired brush strokes, bringing out abstract forms with opaque and transparent surface values. This could be likened to the works of Jeram Patel, a senior contemporary and teacher of Solanki. He also shows his affinity for the kind of free drawings done by K G Subramanyan and Ram Kinkar Baij, especially when it comes to the drawings of animals like cats and horses. Though it is not popularly acknowledged, a discerning art lover could see that both Solanki and A. Ramachandran shared an exalted affinity for drawings and they took a lot of effort to travel to a particular place in order to draw (in the case of Ramachandran it was Baneswar in Rajasthan and for Solanki it is Girnar in Gujarat).
कला
बत्तीसी
एक
सांस्कृतिक पुनः अवलोकन
अवधेश
मिश्र
प्रख्यात कलाकार एवं
अभिनेता कनु पटेल की पुस्तक कला बत्तीसी : एक सांस्कृतिक पुनः अवलोकन, हाल में ही प्रकाशित हुई है। कनु
पटेल ने इस पुस्तक को "कला जगत के उन कलाकारों को जो अपनी कलात्मक रचनाओं में
भारतीय कलात्मक मूल्यों को संरक्षित और पोषित करते रहे हैं" को समर्पित किया
है। वह प्रस्तावना में लिखते हैं "कला वह है जो न केवल देखी जाती है बल्कि
भीतर को जागृत कर जाती है।" वह कहते हैं कला बत्तीसी पुस्तक में बत्तीस
अध्याय हैं लेकिन वे अध्याय नहीं, प्रश्न पूछ कर भीतर को
जागृत करती पुतलियां हैं। ये पुतलियां सिंहासन बत्तीसी की भांति हर कलाकार को, हर
कदम पर परखती हैं, उससे संवाद करती हैं और अन्ततः उसे कर्ता
से साक्षी बनाने की यात्रा पर ले जाती हैं। भारत की कला परम्परा को पश्चिमी इतिहास,
औपनिवेशिक आलोचना या आधुनिक सीमाओं से नहीं समझा जा सकता। वह समझी
जा सकती है श्रद्धा से, अनुभव से, प्रेरणा
से और सबसे बढ़कर भारतीय दृष्टि से। यही इस ग्रंथ का प्रयोजन है “एक आत्मनिर्भर,
आत्मसंवेदी और आत्मिक कलादृष्टि की पुनः प्राप्ति।” कनु कहते हैं कि
यह केवल एक पुस्तक नहीं “भारतीय कला आत्मा की, कला मंदिर में
इस सांस्कृतिक पुनः अवलोकन द्वारा पुनः स्थापना है।”
कला बत्तीसी एक दार्शनिक प्रश्नोत्तर है - आत्म दर्शन का, जहां एक बहुआयामी कलाकार के जीवन और कला-यात्रा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित स्वयं से स्वयं का किया गया प्रश्नोत्तर है या कहें एक कलाकार द्वारा अपने भीतर झाँकने का किया गया प्रयास है जिसका रस पुस्तक को घूंट-घूंट किए गए आस्वाद से प्राप्त किया जा सकेगा। कलाकार ने प्रत्येक अध्याय में पुतली (काल्पनिक पात्र) द्वारा किए गए कला से संबंधित गूढ़ प्रश्नों के अमूर्त, दार्शनिक और सारगर्भित उत्तर दिए हैं जो पठनीय और चिंतनीय हैं।
पृष्ठ 16 पर पुतली के
प्रश्न का उत्तर देते हुए कलाकार (श्री कनु पटेल) कहता है -
मैं जानता हूं कि भारत का स्थापत्य
न केवल पुरातन है बल्कि पूर्णतः परिपक्व अवस्था में जन्मा हुआ है
ईसा पूर्व 500 से भी प्राचीन समय में
जब यूनान केवल संगमरमर को तरसना सीख रहा था
भारत में गुफाएं, स्तंभ, वेदियाँ
नालियां और मंदिरों की कल्पना आकार लेने लगी थी
और यह कल्पना आकस्मिक नहीं थी-
यह थी एक आध्यात्मिक प्रक्रिया
जहां देवता को केवल पूजना नहीं
हृदय में स्थान देना था - उसकी उपस्थिति का स्थापत्य रचना था।
पृष्ठ 30 पर -
हे रूपरेखा
अब मैं अब समझने लगा हूं कि भारतीय कला में
रूप केवल देखने के लिए नहीं होता –
वह जीने, समझने और अनुभव करने के लिए होता है।
पृष्ठ 34
हे भावध्वनि
मैं अब समझता हूं –
भारतीय कला इंद्रियों को विभाजित नहीं करती –
बल्कि उन्हें संपूर्ण यंत्रणा की तरह देखती है।
जब नटराज नृत्य करता है –
हम उसकी मूर्ति देखते हैं, पर भीतर ध्वनि, ऊर्जा और भाव की लहरें दौड़ती हैं।
अजंता की चित्र रेखाएं शब्दहीन संगीत हैं
जिनमें रंगों से अधिक मौन बोलता है।
भारतीय कला केवल दृश्य नहीं
वह श्रव्य, गंधात्मक, स्पर्शात्मक और मानसिक अनुभव है।
पृष्ठ 36
हे भावध्वनि
रस भारतीय कला का मूल है -और रस की उत्पत्ति भाव से होती है।
भाव से रस, रस से अनुभव, अनुभव से समाधि।
अजंता की करुणा - करुण रस की गहराई।
नटराज का तांडव - रौद्र और अद्भुत रस का समन्वय।
महाभारत के युद्ध चित्र - वीर और वीभत्स रस का अद्भुत संतुलन।
भारतीय कला भावों को चित्रित नहीं करती –
वह उन्हें संप्रेषित करती है - इंद्रियों से नहीं चेतना से।
पृष्ठ 44
हे लोकप्रिया
अब मैं समझता हूं –
लोक कला तटस्थ नहीं, सहभागी होती है।
वह कलाकार और दर्शक के बीच दीवार नहीं खड़ी करती-
बल्कि तट और तरंग को एक करती है।
लोकनाट्य में दर्शक भी गाते हैं।
गरबा में दर्शक ही रंगमंच बन जाते हैं।
लोक मूर्तियां किसी गैलरी में नहीं, घर की चौखट पर सजती हैं।
यहां कला भोग नहीं उत्सव है।
और उत्सव- किसी एक का नहीं, सबका होता है।
पृष्ठ 48
हे अनुगूँजा
भारतीय कला की सबसे बड़ी शक्ति यही है -
मृदंग की थाप अब भी नई कोरियोग्राफी में धड़कती है।
काव्य छंद अब भी विज्ञापन की पंक्तियों में मुस्कुराते हैं।
लोक कथाएं आज भी फिल्म, पेंटिंग और डिजिटल मंचों पर नई शक्लों में गूंजती हैं।
“मैं कलाकार के रूप में मंदिर के ईटों से नहीं
पर उसकी चेतना से कला गढ़ना चाहता हूँ।”
पृष्ठ 53
हे कलाकार
अब तुम कला और समाज, अतीत और भविष्य
जन और जनार्दन के बीच सेतु बन चुके हो।
अब तुम केवल सर्जक नहीं,
संवाद कर्ता भी हो।
पृष्ठ 56
हे नंदिनी
अब मैं जान गया हूं कि ताल केवल गिनती नहीं,
बल्कि समय की चेतना है।
फिर त्रिताल में ब्रह्मा-विष्णु-महेश का संतुलन है।
एक ताल में साधु की निश्छलता है।
ताल भारत में घड़ी नहीं
वह यात्रा है – इसमें समय को बांधकर रस बनाया जाता है।
पृष्ठ 60
हे चित्रांगी
अब मुझे ज्ञात है कि
नीला केवल कृष्ण का रंग नहीं
वह असंभव की उपस्थिति है-
एक अनंत, अकथ सत्य।
पीला केवल बासंती नहीं
वह संतत्व है - ज्ञान और समर्पण।
सफेद केवल शांति नहीं
वह शून्यता की ऊष्मा है।
“भारतीय चित्रकला में रंग, भावना के स्वरों की तरह काम करते हैं-
जहां कोई भी रंग मौन कर सकता है और गूँज भी सकता है।”
पृष्ठ 64
हे देहलीका
अब मैं जान गया हूं कि
देह भारतीय कला में एक वाद्य है -
जिसे साधा नहीं गया तो वह व्यर्थ शरीर है
और जो साध लिया गया तो वह नाट्य का मंत्र है।
नृत्य में देह लयबद्ध होती है
मुद्राओं में अर्थ प्रकट होता है
नेत्रों में रस बहता है
गति में मन की वृत्तियां झलकती हैं।
यह देह ‘शरीर’ नहीं
वह संकेत भाषा है -
जहाँ मौन सबसे अधिक कहता है।
पृष्ठ 69
अब मैं समझता हूं-
कि भारतीय कालबोध में कल्प वह आवृत्ति है
जहाँ कला, दर्शन और ब्रह्मांड एक हो जाते हैं।
एक राग का आरोह और अवरोह भी एक कल्प है।
एक चित्र का रंग विन्यास भी कालचक्र है।
नृत्य की त्रिपुटी (लय, मुद्रा, भाव) भी कल्प की अभिव्यक्ति है।
कलाकार का कार्य केवल रचना नहीं
बल्कि सृष्टि की गति में स्वयं को सम्मिलित करना है।
पृष्ठ 70
हे कल्पिनी
अब मैं जानता हूं कि
कलाकार ‘कल्पना’ नहीं करता –
वह उसे अनुभव करता है और रचता है।
जब वह रंग चुनता है
वह मन के ताप और शीतलता को मापता है।
जब वह आकृति बनाता है
वह स्वप्न और स्मृति का समन्वय करता है।
जब वह नृत्य करता है
वह समय की काया को झंकृत करता है।
‘तब वह कल्पना से परे
ब्रह्मा के निकट हो जाता है।’
पृष्ठ 76
हे स्वरात्मा
मैंने अब जाना है कि
कला केवल ‘कौशल’ नहीं
वह ‘संवेदना’ है।
जब मैं रंग उठाता हूँ तो वह मेरी मनःस्थिति को प्रकट करता है।
जब मैं राग छेड़ता हूँ तो उसमें मेरा भाव काँपता है।
जब मैं कथा कहता हूँ तो वह मेरे अंतर्मन की गाथा होती है।
‘मैंने सीखा है कि बिना आत्मा स्पर्श के कोई भी रचना
केवल ‘प्रदर्शन’ है ‘प्रकाशन’ नहीं।
हे संजीविनी
अब मैं समझता हूं कि भारतीय कला कभी दर्शकों के लिए नहीं बनी
वह जीवन के लिए बनी।
भरतनाट्यम की मुद्राएं केवल सौंदर्य नहीं
वे मानव शरीर की ऊर्जा-रेखाओं को संतुलित करती हैं।
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी
केवल कानों को नहीं
हृदय को शांत कर देती है।
लोक चित्रकला में जीवन का चक्र
मृत्यु, जन्म और पुनर्जन्म की गति
सब कुछ समाहित होता है
‘कला भारत में केवल अभिव्यक्ति नहीं
वह उपचार है, अनुभूति है, संजीवनी है।
पुस्तक : कला
बत्तीसी : एक सांस्कृतिक पुनः अवलोकन, लेखक :
कनु पटेल, प्रकाशक : लज्जा पब्लिकेशन, दूसरी मंजिल, सुपर मार्किट, राजेन्द्र
मार्ग, नाना बाज़ार, वल्लभ विद्यानगर,
गुजरात मूल्य : 350/-
मोनालीसा हँस रही थी
सर्वेन्द्र
विक्रम
समकालीन भारतीय चित्रकला की दुनिया में अशोक
भौमिक का नाम सुपरिचित है। देश-विदेश में उनकी एक दर्जन से अधिक चित्र प्रदर्शनियाँ
आयोजित हो चुकी हैं। मोनालीसा हँस रही थी उनका पहला उपन्यास है जो कला,
खासकर चित्रकला और पूँजी की दुनिया को पृष्ठभूमि बनाकर हिंदी में लिखा गया संभवतः
पहला उपन्यास है और इसमें चित्रकला में पूँजीवादी बाजार के कुत्सित दबाव की पड़ताल
की गई है।
बाजार की फितरत है कि वह असहमति और प्रतिरोध को
भी हर सम्भव तरीकों से अपने पक्ष में करने की कोशिशें करता है। लेखक, कलाकार,
बुद्धिजीवी उसके स्वाभाविक प्रतिपक्ष रहे हैं। यह जरूर है कि इनमें से जहाँ कुछ
लोग उससे सहमति और समझौते का मध्य मार्ग अपना लेते हैं, वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं
जो बाजार के वर्चस्व के विरोध में भी अपना काम निरन्तर जारी रख पाते हैं।
लखनऊ, आजमगढ़ और आखिर में बम्बई में फैले
उपन्यास के कैनवास में अनेक रंग हैं जो एक कुशल चित्रकार की कलम से उकेरे गए हैं।
इसमें थोड़ा सा लखनऊ है, आर्ट्स कॉलेज है, प्रोफेसर अमित कुमार नियोगी हैं जो अपनी
कला को बेचने के लिए किसी भी तरह राजी नहीं है। इस माहौल में राहुल, संगीता और
किशन बड़े होते हैं, राहुल से संगीता की बचपन की लम्बी दोस्ती और शायद एक तरफा
प्रेम है। संगीता जमशेदपुर चली जाती है और राहुल एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह अपने
पिता के अमीर उद्योगपति दोस्त की बेटी से शादी कर घर जमाई बनने बम्बई जाता है, जहाँ
उसके लिए नियति ने दूसरी भूमिकाएँ सोच रखी हैं। राहुल संगीता से शादी नहीं करता,
किशन राहुल से इस बात को लेकर नाराज है। किशन आजमगढ़ में एक स्कूल में आर्ट टीचर
की नौकरी कर लेता है। अब छोटी सी नौकरी है, वहीं गाँव में परिवार के और जन हैं।
पोर्ट्रेट बनाने का काम मिलने लगा है, पैसे भी। यहाँ उसकी मुलाकात राजेश और उसकी
पत्नी मीना से होती है। किशन को बम्बई के कवासजी आर्ट गैलरी में अपने चित्रों की
प्रदर्शनी का सपना पूरा होता लग रहा है और वह इस्तीफा देकर यहाँ से चले जाने का
फैसला कर लेता है, लेकिन उसे राजेश रोक लेता है। मीना बहुत सुन्दर है, किसी
कुम्हार के सन्तुलित हाथों के हल्के गहरे दाब से चाक पर रखकर गढ़ी हुई। ऐसी आँखों
की गहराइयों में डूब कर असंख्य कविताएँ लिखी जा सकती थीं। बिना लहरों वाले विशाल
झील पर उतरती शाम के लैंडस्केप बनाए जा सकते थे। मीना में एक खालीपन है, अकेलापन
है। वह शादी के बाद इलाहाबाद से आकर आजमगढ़ जैसी छोटी जगह में एडजस्ट नहीं कर पा
रही है। मीना के साथ मुलाकात के प्रसंग हैं जिन्हें बहुत कोमल संस्पर्श से लिखा
गया है। जिसे मोनालिसा के चित्रकार विंसी के संदर्भ से और अधिक अर्थगर्भित बना
दिया है। यह संदर्भ आर्ट्स कॉलेज की मॉडल कुसुम के बहाने से भी हैं। किशन और मीना
के बीच का सम्बन्ध बहुत झीना पारदर्शी है। लेखक इन सब का विवरण बहुत कलात्मक ढंग
से, जैसे कविता की तरह लिखता है। किशन मीना के पोर्ट्रेट बनाता है। किशन का साथ
पाकर मीना को महसूस होता है कि उन्हें बहुत कुछ मिला है और यह कर्ज उतारने के लिए
वह अपना न्यूड बनवाने के लिए तैयार हो जाती है। लेखक का यह लिखना बहुत अर्थपूर्ण
है कि होठों से चलकर आँखों तक जा थमने वाली एक हँसी लिए, वह मीना नहीं थी। किशन को
लगा उसकी ओर देखते हुए मोनालिसा हँस रही थी। इसके बाद सब कुछ बदल गया था –
मीना, राजेश और किशन के जीवन में।
किशन बम्बई चला जाता है। उपन्यास का असल कैनवस
तो बम्बई में भरा जाना है। जहाँ राहुल एक बड़े औद्योगिक घराने का वारिस बन गया है
लेकिन वह अपने दोस्त किशन को भूला नहीं है।
बम्बई में किशन पाँव जमाने की कोशिश में है, कुछ
लोगों से उसकी पहचान बढ़ रही है, नौजवान, हमउम्र, जूझते-हारते बेरोजगार कलाकार -
रामदेव पाठारे, मुक्ता देशपांडे, प्रभु यादव, शिप्रा, विजय, दिनेश गांधी- सब के सब
भविष्य के बारे में बेखबर वर्तमान में जीने वाले, कविता और नाटक को लेकर उत्तेजित।
फोटो प्रदर्शनी और कविता पाठ में डूबे, अछूत शब्दों को कविता में दाखिल कराने की
जिद में जान देने के लिए तैयार। उनकी आँखों में आने वाले दिनों के लिए अनन्त सपने
हैं और इसीलिए वह खुलकर हँसते हैं। लोग इन नौजवानों और इनकी सड़क पर लिखी कविताओं
के दीवाने हो चले हैं।
और तब शुरू होता है पेंटिंग प्रदर्शनियों, गैलरी
मालिकों, आर्ट डीलरों, नरेश और सुनीता नारंग, आस्पी मोदी, मार्क, कार्ल, सुमन
चक्रवर्ती और डेविड जैसे लोगों का खेल। डिमांड, हाइप, हायर प्राइस और नीलामी का
खेल। किशन एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढ़ रहा है, उसकी कीमत बढ़ रही है। उसकी
पेंटिंग की माँग बहुत बढ़ गई है, उससे करार करने के लिए आर्ट डीलर उतावले हैं।
बहुत देर में यह खुलता है कि इन सब के पीछे कहीं न कहीं राहुल, जिसे किशन ने एक
दिन अपनी प्रदर्शनी में अपमानित करके लौटा दिया था, का हाथ है। उसी के इशारे पर
जीत शेट्टी यह सब कर रहा था। किशन को भारत का ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा कलाकार
बना देने का खेल राहुल, मनीषा और शेट्टी और ट्यूलिप नाम की पीआर संस्था का है, उन
लोगों के लिए यह भी एक प्रोजेक्ट है जिसे हर हाल में सफल होना ही है। किशन की
ज्यादातर पेंटिंग बिक कर राहुल के पास पहुँच रही थीं। जब यह उजागर होता है तो किशन
के लिए सह पाना मुश्किल हो जाता है। किसी गहरी साजिश की गिरफ़्त में खो जाने का
एहसास होता है। पर अब नाटक का अंतिम दृश्य मानो खत्म हो चुका है। ऐसे में किसी
चौराहे पर उसे अमित नियोगी की याद आना सहज ही है। उनके सर में कीलों का घाव है, हाथों
में घाव है। किशन का संशय है कि उसे दूसरों ने छला है या उसने अपने आप को छला है,
वह जो खोज रहा था, उसे मिला या नहीं।
अशोक भौमिक का यह उपन्यास सहज पठनीयता और अपने कथ्य
के नएपन के कारण भी सराहा जाएगा।
उपन्यास : मोनालीसा हँस रही थी, लेखक : अशोक भौमिक, प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, उ,प्र, मूल्य पेपर बैक रू 150/-
कनु पटेल का कलावदान
बहुव्रीहि
डॉ अवधेश मिश्र
गुजरात के प्रख्यात कलाकार
कनु पटेल कहते हैं – अमूर्तन, मूर्त
की ही अवधारणा से गुजरकर एक नया रूप लेता है जिसमें खासकर संवेदनाओं के जो रूप
होते हैं,
उन्हें मैं पकड़ने की चेष्टा करता हूँ। मैं इस यात्रा में अवकाश (स्पेस), बनावट (टेक्सचर) और रंगों से उसकी प्रतीति करता हूँ यानी
उसे महसूस करने करने का प्रयास करता हूँ।
कनु पटेल चित्रकार और
अभिनेता दोनों हैं। वह जितनी तन्मयता और धैर्य से चित्र-रचना करते हैं, उसी तरह रंगमंच और फिल्मी स्टेज पर अभिनय भी करते हैं। लगभग
पचास एकल और सौ से अधिक सामूहिक प्रदर्शनियों एवं बड़े आयोजनों में भागीदारी निभाई
है। वह अनेक हिंदी, गुजराती, राजस्थानी
आदि फिल्मों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए अनेक वृत्त चित्र, कॉरपोरेट फिल्म, टेली फिल्म, टीवी सीरियल, कला निर्देशन, हिंदी धारावाहिक, गुजराती नाटक, हिंदी नाटक, टीवी नाटक आदि में भी उल्लेखनीय भूमिका में काम कर चुके
हैं। कनु की पाँच किताबें और अनेक आलेख कला की दुनिया में उन्हें एक प्रबुद्ध
कलाकार के रूप में स्थापित करते हैं।
‘बहुव्रीहि’ कनु पटेल
के कला संसार पर आधारित प्रख्यात लेखक एवं समीक्षक डॉ ज्योतिष जोशी की लिखी पुस्तक
है जिसमें ‘दृश्यता का नया मानक’, ‘कला-दृष्टि
का विस्तृत आयतन’, ‘रंग-संस्कार
और नाट्यवदान’, ‘परदे पर
अभिनय का कौशल’ अध्यायों में कनु पटेल के दृश्यकला और मंचकला के क्षेत्र में दिए
गए अवदान को रेखांकित किया गया है। लेखक ने लिखा है कि “दूरदर्शन के नाटकों में भी
उनके अभिनय देखे तो ‘कृष्णा’, ‘अलिफ
लैला’,
‘चंद्रगुप्त मौर्य’, ‘संक्रांति’
जैसे धारावाहिकों के विभिन्न चित्रों के रूप में उनकी भूमिकाएं भी मैंने देखी
हैं।” आगे लिखा है कि ‘बहुव्रीहि’ कनु पटेल के रूप में एक समग्र कलाकार की खोज है
जो अनेक रूपों में, अनेक
कलाओं में हमारे समक्ष है और जिसे सभी क्षेत्रों में काम करते हुए हमारी संस्कृति
को समृद्ध किया है।
तानसेन समारोह, ग्वालियर के कला शिविर (13-19
दिसम्बर 2024) में कनु पटेल के साथ एक सप्ताह रहकर काम करने का अवसर मिला
तो देखा कि वह किस तरह धैर्यपूर्वक अपने काम पर केंद्रित होकर उत्सव में जीते हैं।
वह उपहार में लिपटे या उद्घाटन अवसर पर बँधे फीते को जिस तरह अतियथार्थवादी संयोजन
में प्रयोग करते हुए चित्रण करते हैं, कोई भी उल्लास से भर जाएगा। ‘बहुव्रीहि’ पुस्तक में
प्रकाशित कनु के अनेक चित्र अपनी-अपनी तरह से अपने-अपने समय की कहानी कहते हैं।
कहीं अमूर्त शैली तो कहीं तरु के साथ स्त्री, कहीं नृत्य मुद्रा में तो कहीं बैलगाड़ी के पीछे आता गाँव
वालों का झुंड जिसे डॉ ज्योतिष जोशी ने अलग-अलग खंड में विभाजित करते हुए प्रत्येक
पक्ष को उजागर किया है। वह लिखते हैं कि “अति यथार्थवादी पद्धति के तहत अपने
आरम्भिक प्रयोग के साथ कनु ने आख्यानपरकता को साधते हुए ‘ब्लोज़्म वुमन’ शृंखला पर काम किया। इस शृंखला में काम करते हुए उनकी
कला में पहली बार स्त्री का प्रवेश होता है। यह विषय कनु को नाटक करते सूझा। यह
स्त्री बदले हुए समय और जीवन के यथार्थ के रूप में सामने आती है। वह केवल
परम्परा-प्रसूत या पोषित नहीं। कालिदास के नाटकों की स्त्रियों में शकुंतला, मालविका और उर्वशी सरीखी स्त्रियाँ जितनी परम्परा में हैं, उतनी ही आधुनिक वर्तमान में। अपने रूप विन्यास में गहरे
भावों का ताप लिए कनु की ये स्त्रियाँ प्रश्नाकुल हैं। वे चीत्कार नहीं करतीं, पर अपने गतिमय स्वरूप में ऐसी दिखती हैं मानो हमें
प्रश्नांकित करती हैं। पृष्ठभूमि के विन्यास में उभरते चरित्र अपने जीवन के
प्रसंगों में हमें ले जाते हैं और एक लय में बाँधकर यथार्थ को हमारा अपना समय बना
देते हैं।” 1990 से 1995 तक इस शृंखला में काम करते कनु ने अपने को लगातार माँजा, परिपक्व किया और अपने को नई चुनौतियों के लिए तैयार भी
किया। आगे पुस्तक में ‘सेवन कलर्स ऑफ माय सी’ शृंखला की विशेषताओं का भी जिक्र है
जिसमें कृतियों में रंगों के लक-दक मेल से अनेक छवियों के मूर्त होने का वर्णन है।
लिखा है ‘कहीं एक रंग बहुल बवंडर दिखता है तो कहीं रंगों के थक्कों से निर्मित भवन
दिखता है। कहीं सफेद सी दिखती नाना नामालूम सी चीजों के ठीक सामने और अस्पष्ट सी
स्त्री आकृति नर्तन करती है। कहीं समुद्र के भीतर बसे संसार के अनजान दृश्य हमें
अपने खोह से डराते हैं तो कहीं वर्षा के बाद उभरी छायाओं से हम युगल के चुम्बन-सा
दृश्य देख पाते हैं। समुद्र के भीतर के संचरण को आँकते कनु जीवन के उदय और अस्त को
भी देखते हैं तो अपने भीतर के रहस्यों में प्रकट होते भावों को जीवन देते उसके
प्रकट अर्थ को महसूस कराते हैं।
अमूर्त चित्रों पर चर्चा
करते हुए पुस्तक में कनु के हवाले से लेखक कहता है “अमूर्तन हमारे शून्य का
प्रतिरूप है। शून्य वह समूचे जीवन का भावपुंज है। उसकी शून्यता में आकार लेती छवियाँ
ही हमारी चेतना का निर्माण करती हैं। हमारे राग-बिराग, मनोभाव और चित्त की प्रतीतियों
का गहरा सम्बन्ध इस शून्य से है। शून्य यह विराट है कदाचित हमारे जीवन और संसार से
भी बड़ा। यह एक ध्यान में खुलता है जिसे कलाकार अपने को खो कर पाता है।
कनु पटेल के रेखांकन पर
चर्चा करते हुए पृष्ठ संख्या 29
पर डॉ ज्योतिष जोशी ने कैंदिन्सकी के एक कथन को उद्धृत किया है कि ‘सभी कलाओं में
अमूर्त चित्रकारी मुश्किल काम है। अमूर्तता की माँग है कि आप रेखांकन में कुशल हों।
संयोजन और रंगों के प्रति आप में गहरी संवेदनशीलता हो और यह भी जरूरी है कि आप
अच्छे कवि हों। कवि होना अमूर्तता की अनिवार्य शर्त है।’ इस तरह लेखक ने कलाकार की
संवेदनशीलता, रचनात्मकता और कौशल की चर्चा करते हुए कनु पटेल द्वारा एक चित्रकार
के रूप में रची गयीं अनेक शृंखलाओं – अमूर्त शृंखला, अतीत राग, रेन स्केप (व्हील एंड
वाटर, अनार्किस्ट ऐज़ विटनेस, अम्ब्रेला एंड मल्टीट्युड आदि उपशृंखलाएं), कार्डियोग्राम
ऑफ़ कांफ्रेंस, द गेम ऑफ़ स्नैक्स एंड लेडर्स, डायलाग विटविन पेपर एंड ट्री, जरनी ऑफ़
क्रिएटिविटी आदि के बहाने सामाजिक और आध्यात्मिक तल पर संवाद कर रहे कलाकार के
विचारों की पुस्तक में प्रकाशित रंगीन चित्रों के साथ कलात्मक व्याख्या की है साथ
ही उन पक्षों - विशेषकर अभिनय के क्षेत्र में किये गए कलावादन पर सचित्र विशेष
चर्चा की गयी है जो कला रसिकों को भायेगी।
पुस्तक : बहुव्रीहि, लेखक : डॉ ज्योतिष जोशी, प्रकाशक : लज्जा पब्लिकेशन्स, नाना बाज़ार, वल्लभ विद्यानगर, आनंद (गुजरात), मूल्य : रू 750/-
भोजपुरी लोक संस्कृति और परम्पराएँ
भोजपुरी लोक संस्कृति की दिशापथी पटकथा
अशोक कुमार सिन्हा
भारत में लोक संस्कृति की
संरचना ही सामाजिक जीवन की आधारशिला है। लोक जीवन का पल्लवन और उसकी निरंतरता ही
लोक भाषा क्षेत्र का गठन करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में भोजपुर क्षेत्र के उत्साही
सक्रिय युवा लेखक भुनेश्वर भास्कर की अनूठी, व्यजंनात्मक किताब ‘‘भोजपुरी लोक संस्कृति और परम्परा‘‘ का
नायाब प्रकाशन भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से हुआ है, जो एक स्पृहणीय परिघटना है। देखते-देखते अपनी विम्बात्मकता
और पठनीयता के स्वाद से यह इतनी पंसद की गई है कि इसका दूसरा संस्करण भी आया है।
इसी से इस पुस्तक के महत्त्व और उपयोगी होने का परिचय मिल जाता है। लेखक स्वयं जिस
तरह भोजपुरी लोक संस्कृति में रचे-बसे हैं उसी का आख्यान है यह पुस्तक। इसमें इनके
भीतर का शिल्पी, चित्रकार,
संस्कृति विचारक मूर्त्त हो गया है। जिस
कथात्मक सूत्र से इसकी रचना हुई है उससे सहज ही इस पुस्तक की स्वीकार्यता का पता
चल जाता है।
भोजपुरी भाषा क्षेत्र और
जहाँ-जहाँ इस भाषा क्षेत्र के लोग गए-बस गए हैं- वहाँ-वहाँ भोजपुरी लोक परम्पराओं,
अनुष्ठानों, गीतों, खेलों का प्रसार
हो गया है। यह एक अनोखे समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है। ऐसा भोजपुरी संस्कृति
में, प्राकृतिक आसंग में जीवन
जीने की सरलता और तरलता के चलते हुुआ है। कोई लोक संस्कृति समाजशास्त्रीय अध्ययन
का विषय तभी होती है जब वह अपने पूरे समाज के व्यावहारिक जीवन को प्रतिबिंबित करते
हुए उसके हर सदस्य की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बन जाती है। यह किताब रोचक सम्पूर्णता
और गहराई में इसी पथ की स्थापना, रेखांकन और
प्रवर्तन करती है। इसी अर्थ-रूप में लेखक और यह प्रकाशन परिचयात्मक नहीं है बल्कि
सम्पूर्ण भोजपुरी संस्कृति के सौन्दर्य की मनमोहक और आस्वाद्य रचना है। इस मनमोहन
और आस्वादन का रचयिता स्वंय भोजपुरी क्षेत्र का विशिष्ट जनजीवन है जो मुक्त भाव से
अपने संस्कारों और मान्यताओं से निर्मित हुआ है। इस जन जीवन की करूणा, सरलता, सहजता, कल्पनाशीलता को हम पुराण
पंथी, सामंती या अंधविश्वासी
नहीं कह सकते। इसमें जो प्रखरता और भाव प्रवाह है उसमें एक संघर्ष, सहनशीलता और समावेशन सांस्कृतिक सत्त्व हैं।
इसी का बहुत ही सहेतुक निरूपण इस कृति में लेखक ने किया है।
भोजपुरी संस्कृति का
ताना-बाना पूर्णतः गीतात्मक है। लोक गीत ही जीवन के आधार, विश्वास और आस्था के धारक भोजपुरी लोक संस्कृति और
परम्पराओं को स्थायित्व प्रदान करते हैं। इसी मानी में एक शास्त्रीय कार्य करने की
जरूरत के तहत ही यह किताब उसकी एक झलक और प्रस्तावना है। इसी अर्थ में यह किताब
उसकी एक आधार भूमि प्रस्तुत करती है। यह भोजपुरी संस्कृति को उपजीव्य बनाने का
कार्य है। भास्कर इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं। इस जीवंत कृति को हम मात्र
प्रलेखन की संज्ञा नहीं दे सकते मूलतः यह लेखक का पुनर्सृजन है। हम इसे भोजपुरी
संस्कृति की एक शुरूआती संहिता भी कह सकते हैं। राह चलते बटोही, हल चलाते किसान, मेहनतकश महिलाओं के कंठ में पेवस्त यह संस्कृति आज के समय
के विरूपित दौर में अपने ज्ञान और व्यवहार को माँजने वाले जीवन की किताब हो गई है।
लेखक ने खेल, पवित्र अवसरों, शिल्प कर्म, परम्परा की परिवारी कोहबर, चित्रशैली का ऐसा मनोहारी शब्दचित्र अंकित किया है कि लगता
है कि उसमें लेखक के साथ हमारी भी भागीदारी हो रही है। हम भोजपुरी संस्कृति का अंग
बन जाते हैं।
मैं स्वयं भी भोजपुरी
क्षेत्र का हूँ। मुझे विस्मय है कि मैं भी अपनी संस्कृति के ऐसे पन्नों से परिचित
नहीं रहा हूँ।एक संस्कृति का इतना हृदय गाही कथानक लिखा जा सकता है - यह एक प्रमाण
है कि इससे विमर्श का एक सोशल साइट निर्मित हो जाता है। इस किताब का इसी रूप में
एक उपन्यास की तरह वायरल होना एक आंदोलन है। हमारी वैश्वीकृत दुनिया में
संस्कृतियों को जानने की जरूरत को यह किताब स्थापित करती है। निस्संदेह जानकारी
में यह किताब भोजपुरी संस्कृति को अग्रणी बनाती है जिसका प्रसार चौदह देशों में
हैं। सूचना नहीं एक ज्ञान की तरह यह किताब बताती है कि भोजुपरी संस्कृति कितनी
संवेदनात्क और सामाजिक है और सदियों से यथा रूप जीवित है। इसे हम पुरानी दुनिया
नहीं कह सकते। यह किताब सिद्ध करती है कि अपनी परम्परागत संस्कृति ही हमारी नयी
दुनिया है। अपने कठिन रोजमर्रे के जीवन
में भी हम तनावमुक्त होकर जीने के लिए यह संस्कृति की अनन्य किताब है। यह हमें
पुनर्जीवित करती है। इसी से मनुष्यता और हमारे भीतर का मनुष्य बचेगा। आश्चर्य नहीं
कि इसी तरह के प्रयत्न आज कारगर हुए हैं जिससे मिथिला और मंजूषा पेंटिंग की तरह
भोजपुरी कोहबर चित्रशैली या भोजपुरी लोक संस्कृति और परम्परा अपना ‘स्पेस‘ बना रही
है।
पुस्तक : भोजपुरी लोक संस्कृति और परम्पराएँ, लेखक : भुनेश्वर भास्कर, प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रकाशन मंत्रालय, भारत सरकार, मूल्य रू 135/-
उत्तर प्रदेश का कला इतिहास बाँचती पुस्तक
पहला दस्तावेज़
शहंशाह हुसैन
गत वर्ष प्रकाशित पुस्तक, पहला दस्तावेज़, जिसके लेखक एक जाने- माने कला-समीक्षक, सम्पादक, कलाकार एवं कला आचार्य डॉ. अवधेश मिश्र
हैं, की एक ऐसी पहली दस्तावेज़ी प्रस्तुति है, जो अपने आप में
उत्तर प्रदेश की समकालीन कला का इतिहास संजोय हुए है। पुस्तक में उत्तर प्रदेश की दृश्य
कला के आधार स्तम्भ के रूप में असित कुमार हल्दार (1925 ) से
लेकर सुरेन्द्र पाल जोशी ( 2018 ) तक, पच्चीस
कलाकारों को सम्मिलित किया गया है। इन सभी कलाकारों के संक्षिप्त जीवन परिचय से लेकर
दृश्य कला में उनके अवदान, विशेषकर उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य
में, की समीक्षात्मक चर्चा की गयी है।
यद्यपि पुस्तक में संकलित अधिकांश लेख उन कलाकारों पर हैं, जिन पर अवधेश मिश्र समय- समय पर विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। परन्तु इन लेखों को एक पुस्तक के रूप में लाने से पहले इनका पुनर्लेखन, परिवर्धन और तथ्यों को अद्यतन भी किया है। इन आलेखों को एक पुस्तक के रूप में देखने अथवा संकलित होने का अपना एक अलग महत्व है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के दृश्य कला के आधार स्तम्भ कलाकारों का संक्षिप्त जीवन परिचय, दृश्य कला में उनका अवदान और इस बहाने, इससे बढ़कर, उस कालखण्ड में, जिसमें वे कलाकार उस समय, भारतीय कला को एक रूप और दिशा देने में तल्लीन थे, का साक्षात्कार एक अलग ही प्रकार का अनुभव प्रदान करता है। वर्तमान कला परिदृश्य में रहते हुए उस समय के कला परिदृश्य का शाब्दिक अवलोकन और इसका तत्कालीन कला परिदृश्य से तुलनात्मक अध्ययन भी अभीष्ट है, कम से कम उनके लिए जो इसको देखने की प्रवृत्ति रखते हैं और उनके लिए भी, विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए, जो उत्तर प्रदेश के कला परिदृश्य से कालानुक्रम के अनुसार ऐतिहासिक रूप से परिचित होने की इच्छा रखते हैं। क्योंकि इनमें लगभग सभी कलाकार, किसी न किसी रूप में लखनऊ कालिज ऑफ़ आर्ट्स एंड क्राफ्ट से जुड़े हुए हैं, तो यह एक प्रकार से उन कलाकारों के साथ साथ, लखनऊ कालेज ऑफ़ आर्ट्स एंड क्राफ्ट का भी इतिहास है, जो ऐतिहासिक परिदृश्य के रूप में विस्तार से वर्णित है।
बल्कि यदि ध्यान पूर्वक देखा जाए तो यह पुस्तक अपने आप में उतर प्रदेश
के कला परिदृश्य को और इससे जुड़े शहरों, स्थानों और संस्थानों,
जैसे लखनऊ, बनारस और इलाहाबाद आदि, जो दृश्य कला के केन्द्र के रूप में जाने जाते हैं, की
भी ख़बर देती है कि उस समय कौन कौन, कहाँ कहाँ दृश्य कला के क्षेत्र
में क्रियाशील था और उस समय का इतिहास रच रहा था। क्योंकि इसमें वर्णित अधिकतर कलाकार
अपने आप में मात्र एक कलाकार न हो कर एक संस्था थे और और उस काल में अनेक विषम परिस्थितियों
में भी उत्तर प्रदेश की कला को सजाने, सहेजने, सवांरने और उसको
एक दिशा देने का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे थे। इनमें से अधिकांश अपने कला धर्म
और कला चेतना के प्रति वैचारिक और व्यावहारिक रूप से सजग और क्रियाशील थे और अपने मतानुसार
एक दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण रखते हुए भी उस समय कला के कला परिदृश्य को एक दिशा देने
का प्रयास इस प्रकार कर रहे थे कि अपने पूर्ववर्ती कला गुरुओं के द्वारा खींची गयी
रेखा को स्पर्श किये बिना, उसी के समानांतर एक भिन्न रेखा खींचने
का प्रयास करते थे, जो उससे अग्रणी कला प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व
करती थी। जैसे उदाहरण के तौर पर, जहाँ ललित मोहन सेन लखनऊ आर्ट्स
कालेज में अकादमिक शैली के समर्थक थे वहीं असित हल्दार पारम्परिक शैली को लखनऊ की पहचान
बनाने के मिशन में लगे रहे। और आगे, जहाँ असित कुमार हल्दार बंगाल
की कला के पक्षधर थे और विशेष रूप से बंगाल स्कूल की कला प्रचार- प्रसार के लिए ही लखनऊ आए थे, वहीं उनके साथ ही कार्य
करते हुए बीरेश्वर सेन बंगाल के प्रभाव से पूर्णरूपेण मुक्त थे। ऐसा नहीं था कि सेन
का बंगाल की पुनर्जागरण- कला से कोई विरोध था, बल्कि वे रियलिस्टिक और अकादमिक आर्ट से अधिक प्रभावित थे और समकालीन व भविष्य
की कला प्रवृत्तियों के पूर्व दृष्टा के रूप में इसमें प्रयोग की संभावना अधिक पाते
थे, इसलिए चुपचाप अपने ढंग से भारतीय कला के नए अध्याय की भूमिका
रचने में जुट गये। ( पुस्तक से उद्धृत, पृष्ठ संख्या- 32 और 42) इस प्रकार
से देखा जा सकता है कि शुरू शुरू में किस प्रकार से कला प्रवृत्तियों और तदनुसार कला
इतिहास का लेखन हुआ है।
यहाँ यह
देखना भी अत्यंत रुचिकर है कि कला प्रवृत्तियों और धाराओं में बदलाव की छटपटाहट 1945 से ही आरम्भ हो चुकी
थी यद्यपि जिसे पूर्ण रूप से बदलने में वर्षों लग गये और एमएल नागर तक आते आते इसमें
एक आधारभूत और सामयिक परिवर्तन आ सका। यह बात भी सत्य है कि वैचारिक परिवर्तन एक रात
में सम्भव भी नहीं होता और ये परिवर्तन धीमी गति से, शनैः शनैः
होता है। इस प्रकार यह पुस्तक इस दिलचस्प बदलते परिदृश्य को
भी परोक्ष रूप से बताती चलती है। अर्थात जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि यह पुस्तक कलाकारों
के जीवन परिचय और उनके अवदान के साथ साथ ही उनके समय काल की भी साक्षी है।
ज़ाहिर
है कि इस बारीकी के साथ एक बीते समय को पुनः खोजना और उसे लिपिबद्ध करना, कोई सरल कार्य तो नहीं
हो सकता। लेखक को इसके लिये न जाने कहाँ कहाँ की ख़ाक छाननी पड़ी होगी। अवधेश से हुई
वार्ता में उन्होंने ये बताया कि कलाकारों पर विधिवत जानकारी प्राप्त करने के हेतु
उन्हें किन किन स्थितियों का सामना करना पड़ा है और जिन कुछ एक कलाकारों पर विस्तार
से नहीं लिखा जा सका है उसका कारण यह भी है कि सम्बंधित कलाकार पर सार्वजनिक रूप से
कोई सामग्री उपलब्ध नहीं थी और उनके परिवार द्वारा भी अपेक्षित सामग्री उपलब्ध नहीं
कराई जा सकी और लेखक को अपने ही संसाधन और स्रोतों से सामग्री जुटानी पड़ी और जो भी
सामग्री उपलब्ध हो सकी उसी को आधार बनाकर उन पर लिखा गया है।
इस सम्बन्ध
में समस्या यह भी है कि अपने समय काल में इनमें से अधिकतर कलाकारों या उत्तर प्रदेश
के समकालीन कला परिदृश्य पर,
विधिवत रूप से बहुत कुछ लिखा भी नहीं गया है जिससे वर्तमान में कोई सहायता
ली जा सके। अस्सी के दशक में उतर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी के द्वारा इस दिशा में
एक सार्थक प्रयास हुआ था और जिसके अंतर्गत वरिष्ठ कलाकारों पर मोनोग्राफ प्रकाशन की
एक श्रृंखला का आरम्भ किया गया था और जिसके अंतर्गत असित कुमार हल्दार, ललित मोहन सेन, सुधीर रंजन ख़ास्तगीर आदि पर मोनोग्राफ
प्रकाशित भी किये गए लेकिन सम्भवतः दो हज़ार आते आते ये श्रृंखला नामालूम कारणों से
समाप्त हो गई। इस श्रृंखला के अंतिम चार मोनोग्राफ, बद्रीनाथ
आर्य, मोहम्मद सलीम, असद अली और यशोधर मठपाल
(रिट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी के केटलाग के रूप में) पर, स्वयं
इस पुस्तक के लेखक अवधेश मिश्र के द्वारा लिखे गए हैं।
पुस्तक
में जिन पच्चीस कलाकारों को सम्मिलित किया गया है, वे सब कसी न किसी रूप में लखनऊ कालेज ऑफ़ आर्ट्स
एंड क्राफ्ट से सम्बंधित हैं। लेकिन चूंकि यह 'उत्तर प्रदेश की
कला के आधार स्तम्भ' के रूप में लिखी गयी पुस्तक है, इसलिए इसमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बन्धित कलाकारों को सम्मिलित
किया जाना चाहिए था। जबकि पुस्तक के पर्यावलोकन में बनारस और इससे सम्बंधित कलाकारों
जैसे वासुदेव स्मार्त, पम्मी लाल, ए.
पी. गज्जर, दीपक बनर्जी और
दिलीप दास गुप्ता आदि का उल्लेख किया गया है। लेकिन लेखक ने स्वयं इसके बारे में लिखा
है कि जो महत्वपूर्ण कलाकार किन्हीं कारणवश छूट गए हैं उनको दस्तावेज़ के दूसरे खण्डों
में सम्मिलित किया जायेगा। लेखक के अपने कथनानुसार, मेरा प्रयास था कि दृश्य कला की सभी विधाओं से सम्बंधित
महत्वपूर्ण कलाकारों को इस पुस्तक पहला दस्तावेज़ में सम्मिलित किया जाये, पर एक समृद्ध सांस्कृतिक वातावरण में बहुत कुछ नये संदर्भ मिलते गये और लगा
कि सबको एक ही पुस्तक में समाहित करना उचित नहीं होगा और प्रमाणिक सामग्री जुटाने का
काम सतत् चल रहा है और उन्हें आगामी दस्तावेज में सम्मिलित किया जायेगा। आशा है कि
अगले खण्ड में इस कड़ी को पूर्णता प्रदान हो जायेगी।
पहला
दस्तावेज़ के संदर्भ में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक में सम्मिलित पर्यावलोकन
का भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है,
क्योंकि इसमें उत्तर प्रदेश की कला परिदृश्य का एक सांगोपांग वर्णन है,
जो मात्र सत्रह पृष्ठों में वर्णित होने के उपरांत भी उत्तर प्रदेश के
कला इतिहास का संक्षिप्त परंतु समुचित और प्रमाणिक लेखा- जोखा
प्रस्तुत करता है और पाठक को अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध कराता है।
लेखक ने
पूर्ववर्ती कलाकारों पर लिखते समय जहाँ इतिहास का सहारा लिया है वहीं अपने समकालीन
कलाकारों पर लिखते समय, लेखक का उनसे सामीप्य भी साफ़ झलकता है और दिखता है कि लेखक ने उन कलाकारों
को काफ़ी निकट से कला कर्म करते देखा है। इस प्रकार उनके विचार, शैली आदि को जानने और समझने में, ये समकालीनता और सामीप्य
बहुत सहायक हुआ है, लेकिन एकआध स्थान पर लेखक का सामीप्य लेखक
की लेखनी को कुछ अधिक ही उदार बनाता प्रतीत होता है। लेकिन कला जैसे विषय पर लिखते
समय ऐसा सम्भव भी है क्योंकि आवश्यक नहीं कि जो लेखक को दिखता हो वह मुझे भी दिखे अथवा
जो मुझे दिखे वह लेखक को भी और इसीलिए ऐसा सम्भव है कि लेखक के अनुसार किसी कलाकार
की प्रयोगधर्मिता मुझे उसका वैचारिक भटकाव लगे।
अवधेश
मिश्र लगभग गत तीस पैंतीस वर्षों से कला लेखन में व्यस्त हैं। इस विषय में अब तक, इसे मिलाकर,उनके द्वारा लिखित तीन पुस्तकें, कला विमर्श,
संवेदना और कला और पहला दस्तावेज, मंज़रे आम पर
आ चुकी हैं। इसके अतिरिक्त कला दीर्घा जैसी सम्मानित पत्रिका का संपादन भी करते रहे
हैं और इसके तैंतीस अंको का संपादन सफलतापूर्वक किया है। इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर
कहा चुका है कि वह देश की जानी मानी पत्र- पत्रिकाओं और दैनिक
समाचार पत्रों में निरंतर लिखते रहे हैं। इस प्रकार अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों,
पत्रिकाओं में लेखन के साथ ही राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित चार मोनोग्राफ, अकादमी
द्वारा प्रकाशित कला त्रैमासिक पत्रिका के तीन अंक, राष्ट्रीय
ललित कला क्षेत्रीय केंद्र, लखनऊ द्वारा प्रकाशित क्षेत्रीय समकालीन
कला के दो और ललित कला अकादेमी नई दिल्ली के दो अंकों का संपादन भी किया है।
डॉ अवधेश
मिश्र का ये दस्तावेज़ी कार्य अत्यंत सराहनीय और महत्वपूर्ण है। यह अवश्य ही उनके गहन
अध्ययन और शोधप्रवृत्ति की देन है,
जैसा कि पर्यावलोकन से स्पष्ट है कि लेखक ने उत्तर प्रदेश के कला इतिहास
को ख़ूब खंगाला है और तब जाकर इसके बिखरे हुए पन्नों को इस पहला दस्तावेज़ के रूप में
लिखा है। डॉ अवधेश मिश्र वास्तव में बधाई के पात्र हैं और साथ ही यह पुस्तक कला के
विद्यार्थियों, कलाकारों, शोधार्थियों और उत्तर प्रदेश की कला
एवं इसके इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी है।
पुस्तक : पहला दस्तावेज़ : उत्तर प्रदेश की कला के आधार स्तम्भ, लेखक : डॉ अवधेश मिश्र, प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई, मूल्य : रू 299/- (पेपर बैक)
भारतीय चित्रकला का सच
दृष्टि से परे एक नयी
कला-दृष्टि
डॉ लीना मिश्र
अशोक भौमिक एक दृष्टि
संपन्न कलाकार और प्रबुद्ध कला समीक्षक हैं। वह अपनी
प्रत्येक पुस्तक में कला रसिकों और कलाकारों से संवाद करते हुए कला-आस्वाद की एक
नयी दृष्टि देते हैं। दृष्टि और विचार सबके अलग-अलग हो सकते हैं पर हमें
पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आने वाले विचारों का स्वागत करते हुए आत्ममंथन और
आवश्यकता हो तो आत्मपरिमार्जन भी करना चाहिए। इसीलिये विमर्श अत्यावश्यक है, जो
अशोक भौमिक की पुस्तक ‘भारतीय कला का सच’ में मिलता है। दरअसल ‘भारतीय चित्रकला का सच’ एक शीर्षक नहीं है, बल्कि
वह सच है जो हर कला-प्रेमी और कलाकार को जानना चाहिए।
एक लंबे समय से अशोक भौमिक ने न कि सिर्फ चित्र रचना की है बल्कि समानान्तर रूप से
वह लिख भी रहे हैं, वह भी अलग पहचान के साथ। ‘मोनालिसा
हँस रही थी’, ‘समकालीन भारतीय कला : हुसैन के बहाने’, ‘अकाल की कला और जैनुल
आबेदीन’, ‘चित्रों की दुनिया’, ‘रबीन्द्र नाथ ठाकुर की चित्रकला’, ‘चित्त प्रसाद
और उनकी चित्रकला’ आदि अनेक लोकप्रिय पुस्तकों के लेखन के बाद उनकी एक और रचना नयी
दृष्टि और उपयोगी सामग्री के साथ ‘भारतीय कला का सच’ पाठकों के हाथ में है। ‘भारतीय चित्रकला का सच’ पुस्तक में कला को देखने और
रसास्वादन करने की एक दृष्टि मिलती है कि किसी भी ‘फ्रेम’ से कला को देखते हुए हम उसके
रसास्वादन, विविध प्रयोगों और विकास में निरन्तर बाधा उत्पन्न करते हैं, उसे जकड़ते
हैं और जड़वत बना रहे हैं, जिसे अनिवार्य रूप से तोड़ने और कला के नए रूपों,
प्रवृत्तियों और नई सोच वाले ऊर्जावान कलाकारों का स्वागत करने की आवश्यकता है। पुस्तक की चर्चा अथवा अंतर्वस्तु से साक्षात्कार करने के
पहले इसकी भूमिका में आशुतोष कुमार द्वारा लिखी पंक्तियों से होते हुए आगे बढ़ना यानि
अशोक के उस कला वैचारिकी का खुलते जाना है जिस पर एक लम्बे समय से चर्चा करने की
आवश्यकता थी। यहाँ आशुतोष लिखते हैं – “ चित्रकार और कला चिंतक के रूप में अशोक
भौमिक का मुख्य संघर्ष चित्रकला को मानवीय रचनाशीलता की एक विशिष्ट विधा के रूप
में स्थापित करने का है। उनकी कलात्मक स्वायत्तता को रेखांकित
कर हाशिये के आख़िरी आदमी के जीवन संघर्ष के साथ उसके टूट रहे रिश्ते को
पुनर्स्थापित करने का है। कला आखिरकार आज़ादी की इंसानी तड़प से
पैदा हुए उद्यमों का ही हिस्सा है। राजसत्ता, धर्मसत्ता
और बाज़ार उसे अपने मनुष्य-विरोधी उद्देश्यों में इस्तेमाल कर लेने में अब तक
कामयाब रहा है। यह पुस्तक कला को इन सत्ताओं के
शिकंजे से आजाद कर मनुष्य को वापस लौटाने की एक बेहतरीन कोशिश है।”
इस पुस्तक में भारतीय कला-यात्रा को विविध कोणों से देखने और वैश्विक
परिप्रेक्ष्य में हो रही कला रचना की व्याख्या करते हुए विभिन्न कला-प्रवृत्तियों
को देखने-समझने की एक नवीन दृष्टि प्रस्तुत की गयी है। विभिन्न अवसरों पर लेखक द्वारा लिखे गए सोलह आलेखों (294 पृष्ठ) की इस
पुस्तक में वर्तमान कला-परिदृश्य के विभिन्न मुद्दों की सोदाहरण चर्चा की गई है। “एक जरूरी बहस की भूमिका” आलेख में लेखक द्वारा पाठकों,
प्रेमियों और कलाकारों को बिचारने के लिए अनेक मुद्दों का जिक्र किया गया है। लेखक ने रेखांकित किया है कि विभिन्न कालखंड के
शासकों ने राज-आश्रित इतिहासकारों द्वारा न केवल अपनी इच्छानुसार इतिहास लिखवाया
बल्कि उसे प्रामाणिक बनाने के लिए राजाश्रयी चित्रकारों से उसका चित्रण भी करवाया
जो आमजन और राजदरबारी तो दूर, राजपरिवार से भी दूर ही रह गया। हाँ, एक समय पर कला इतिहास के प्रलेखन के क्रम
में उसके विविध पक्षों को रेखांकित अवश्य किया गया पर उसी समय भारत में प्रचलित वह
कला जिसका प्रलेखन नहीं हो सका, उससे हम आज तक अनजान हैं।
इस पुस्तक के
आलेख ‘भारतीय चित्रकला का सच’ में लेखक ने इस बात पर भी जोर दिया है कि एक लम्बे
समय से हमारे परिवेश में कला की व्याख्या कितना मायने रखती है कि यदि कलाकार अच्छा
व्याख्याकार नहीं है या अपनी कलाभिव्यक्ति के समक्ष उपस्थित नहीं है तो वह कला
प्रभावहीन होगी। भाव और रचनात्मकता से परिपूर्ण चित्र भी बिना सन्दर्भ और व्याख्या
के रसहीन और ध्यान न दिया जा सकने लायक होगा।
भौमिक ने कला
बाज़ार को भी छुआ है। इतिहास में भी गए हैं। भारतीय ही नहीं पाश्चात्य देशों की कला
को भी पड़ताल की है और लिखते हैं कि “आधुनिक कला बाज़ार को समझने के लिए हमें दो
बातों पर यहाँ ध्यान देना आवश्यक होगा। यूरोप की कला के एक बड़े कालखंड में हम मूलतःउन चित्रों
को पाते हैं जिनमें धनिकों ने अपनी समृद्धि और सम्पदा के साथ-साथ अपने कुलीन होने
की पहचान को संरक्षित करना चाहा था। यह वर्ग मूल रूप से राजघरानों के
प्रतिनिधियों, वणिकों और नवधनाढ्यों का था, इस वर्ग की पहचान केवल उनके वंश परिचय
और महलों के आकार तक ही सीमित नहीं थी बल्कि रेशम के बने नक्काशीदार बेशकीमती
कपड़े, हाथी दांत से बने सामान, स्वर्णाभूषण, ऊँची नस्ल के घोड़े और कुत्ते, बड़े-बड़े
खेत आदि तमाम ऐसी चीजों का मालिक बनना उनके आर्थिक रूप से संपन्न होने का प्रतीक
बन गया था। इन्हीं धनिकों ने पहली बार व्यापक रूप से चित्रकला में बड़े पैसे के
आगमन का दरवाज़ा खोला।” इन पंक्तियों में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि धनाढ्यों ने
किस तरह कलाकारों को अपनी शान के लिए प्रश्रय दिया जो विभिन्न काल और शासन में
अलग-अलग रूपों में कला बाज़ार का रूप लेती गयी और आज तक कई तरह के परिणामों के साथ
उपस्थित है। इन धनाढ्यों और शासकों के अलावा मंदिरों और धार्मिक चित्रों के रचना
ने भी आस्था के साथ ही एक बाज़ार खड़ा किया पर इसका एक बदरंग चेहरा तब सामने आया जब
कुछ निजी कला वीथिकाओं ने कला को निवेश की तरह स्थापित कर अपने द्वारा रचे कला समूह
अथवा संगठन के अन्दर के ही कलाकारों के लिए काम करने लगीं।”
कला में आम
आदमी और भूख पर हुए चित्रण पर भी अशोक भौमिक ने इस पुस्तक में तथ्यपरक बात की है।
उन्होंने “कला, समय और समाज : युद्ध, अकाल और चित्रकला” आलेख में लिखा है कि लोक
कलाओं और लोक गीतों में यह विषय बार-बार सामने आया है जिसमें भूख के उपाय और दैनिक
ज़रूरतों को पूरा करते हुए समृद्धि प्रदान करने हेतु पूजा-पाठ करते रहने की चर्चा
की गयी है। कला में इन विषयों का जिक्र करते हुए अशोक भौमिक ने ‘उपवास में बुद्ध’
मूर्ति का जिक्र किया है। शबीह कैस इब्ने आमीर उर्फ़ मजनू का सचित्र वर्णन किया है
जिसमें अपने घोड़े और कुत्ते के साथ मजनू को चित्रित किया गया है। चित्र में तीनों
को इस तरह दर्शाया गया है कि उसके शरीर में केवल हड्डियाँ ही बची हैं। चित्र के एक
कोने में पीछे मुड़कर देखती हुयी लोमड़ी भी है पर उसकी भी शारीरिक दशा वैसी ही है।
यानि पूरे चित्र में अकाल दिख रहा है। लग रहा है जीव-जन्तुओं सहित लोग बहुत दिनों
से भूखे हैं। इसी तरह फ्रांसिस्को गोइया ने (1746-1828) युद्ध चित्रित करते हुए
कला में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा किया था। जार्ज क्लौसन (1852-1944) द्वारा रचित
‘विलाप करता यौवन’ युद्ध के विनाश का मर्मस्पर्शी चित्रण है। ओट्टो डिक्स का
महत्त्वपूर्ण युद्ध चित्र – दो व्यक्तियों द्वारा ढोये जा रहे तीसरे व्यक्ति के
चहरे की लाचारी को उदहारण के रूप में देखा जा सकता है कि बीसवीं सदी में कला
विषयों को लेकर किस तरह के बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा रही थी और कुछ कलाकारों
ने अनेक बंदिशों को तोड़ते हुए किस तरह नए युग के पदार्पण का सन्देश दिया।ध्यातव्य
है कि जहाँ ख़ुशी और समृद्धि न दिखती हो, धर्म और सत्ता का अतिरंजित गान न हो, ऐसे
चित्रों का रचा जाना इस बात का द्योतक है कि रचनाकार अब सत्ता और धर्म के दबाव से
मुक्त होकर आम जन-जीवन और देश-काल-परिस्थिति को अपने चिंतन और रचना का विषय बनाने
लगे थे और जन मानस में उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ने लगी थी। क्योंकि कला विधाओं में स्थानीय
और समकालीन संवेदनाओं की अनुपस्थिति और केवल पुनरावृत्ति से कोई रचना सार्थक नहीं
रह जाती। इसी कारण अजन्ता से मुग़ल तक राजा-रानी और देवी-देवता के चित्रों की भरमार
और अतिरंजित शौर्य गाथाओं का वर्णन केवल एक मनोरंजन मात्र और उसका उद्देश्य वाचिक
और लिखित यशोगान को प्रामाणिकता प्रदान करना रह गया था। इसीलिये अन्य कलारूपों के
समानान्तर प्रयोगों की दृष्टि से चित्रकला का विकास नहीं हो पाया।
इस पुस्तक में एक ज़रूरी बहस की भूमिका, भारतीय कला और आज का कला बाज़ार, आधुनिक भारतीय चित्रकला और समीक्षा की धुंध, भारतीय चित्रकला का सच, वह जो एक जनाब सादकैन थे, चित्रकला में लाइन, स्पेस और बिंदु, कला समय और समाज : युद्ध, अकाल और चित्रकला, जन चेतना का एक और चितेरा : देवब्रत मुखोपाध्याय, सोमनाथ होर का एक कालजयी चित्र : ‘बंद बैठक’, विभाजन और भारतीय चित्रकला, महात्मा गाँधी और चित्रकला, भारतीय कला में ‘कथा’ (1- 4), चित्रकला और ‘कथा’ गोमाता, कुल सोलह आलेख (साथ-साथ सम्बंधित चित्रों का प्रकाशन और सन्दर्भ देते हुए ) शामिल किये गए हैं जिनके बहाने हम भारतीय कला ही नहीं बल्कि अनेक पाश्चात्य सन्दर्भों से भी परिचित होते हैं। निश्चित रूप से इस पुस्तक के पाठकों को कला-आस्वाद करने की एक नयी दृष्टि प्राप्त होती है और यही अशोक भौमिक के कला लेखन की सार्थकता भी है।
पुस्तक :
भारतीय चित्रकला का सच, लेखक : अशोक भौमिक, प्रकाशन : परिकल्पना, बी – 7, सरस्वती
काम्प्लेक्स, तृतीय तल, सुभाष चौक, लक्ष्मीनगर, दिल्ली – 110092, पृष्ठ : 294, मूल्य : रूपये 595/-
रवीन्द्रनाथ की कला सृष्टि
कला के रवीन्द्र
डॉ अनीता वर्मा
रवीन्द्रनाथ की कला
सृष्टि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) की कला मनीषा की रचनात्मक अनन्यता से हमें परिचित कराती है। अपनी साहित्यिक
उपलब्धियों से समस्त विश्व को चमत्कृत करने वाले रवीन्द्रनाथ ने जीवन के सांध्यकाल
में, 67 की वय में अपने हाथों
में, पेनइंक और पेस्टल छोड़कर,
तूलिका थामी थी और देखते-ही-देखते उनका यह
रचनात्मक उद्यम उन्हें आधुनिक भारतीय कला के उत्कर्ष तक ले गया। महज रेखा कौतुक
(डूडलिंग) से आरंभ हुए उनके प्रयास को उनके मित्रों, विशेषकर अर्जेन्टीना स्थित उनकी मित्र विक्टोरिया ओकांपो ने,
न केवल सराहा बल्कि उनमें एक संभावनापूर्ण
कलाकार को चित्र बनाने के लिए पर्याप्त उत्साहित भी किया। ओकांपो की प्रेरणा और
अपने अंतर्मन में वर्षों से सोए कलाकार ने रवीन्द्रनाथ को उत्तेजित किया और वे
जीवन के लगभग अंतिम समय तक चित्रांकन एवं रेखांकन में व्यस्त रहे।
वर्ष 1926 से लेकर 1941 वर्ष पर्यंत चली इस अबाधित कला-यात्रा का तथ्यपूर्ण और सचित्र विवरण डॉ.
रणजीत साहा ने अपनी उक्त पुस्तक में किया है। कुल सात चरणों में विभाजित इस कृति
में, प्रस्थान, आधार... आकार... आकाश, चित्र विविधा, साहित्य एवं कला कर्म, चित्रगत प्रयोग
प्रवणता और अंत में रवीन्द्रनाथ कला सृष्टि की व्याप्ति एवं स्वीकृति पर लेखक ने
एक कलाविद् समीक्षक के नाते भी विस्तार से विचार किया है।
रवीन्द्रनाथ की तपोभूमि शांतिनिकेतन में दस से
अधिक वर्षों तक रहे डॉ. साहा ने साहित्य अकादेमी में उपसचिव रहते हुए और जे.एन.यू.
में अध्यापन कार्य करते हुए रवीन्द्रनाथ पर प्रचुर कार्य किया है और उनकी कई
कृतियों के अनुवाद भी किए हैं। रवीन्द्रनाथ के चित्र संसार पर लिखित प्रस्तुत कृति
हिंदी में ही नहीं, भारतीय भाषाओं
में एक विशिष्ट स्थान बनाने में सक्षम है। इसके विभिन्न चरणों में -- पांडुलिपि
संशोधन, दृश्यांकन, आदिम कला, जीव जंतु, प्रकृति, मुखौटों आदि से आरंभ किए गए चित्रकार
रवीन्द्रनाथ द्वारा चित्रित मुखाकृति, देहाकृति, व्यक्तिचित्र,
आत्मचित्र आदि प्रसंगों को कालक्रमानुसार
प्रस्तुत एवं विश्लेषित किया गया है। रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों -- चयनिका,
विचित्रिता, से (वह), खापछाड़ा तथा
चित्रलिपि (1 एवं 2) में उनके द्वारा बनाए गए चित्रों और रेखांकनों
के हवाले से भी साहित्य और कला के परस्पर अनुशीलन को इसमें स्थान मिला है। अपनी
कला प्रविधि को सीमित और यथासंभव देसी बनाए रखते हुए लगभग ढाई हज़ार चित्रों एवं
रेखांकनों की निर्मिति द्वारा रवीन्द्रनाथ ने एक प्रतिमान स्थापित किया।
शांतिनिकेतन के कलात्मक परिसर के निर्माता
रवीन्द्रनाथ का कोलकाता स्थित जोड़ासाँको का ठाकुर परिवार एवं बड़े भाई
ज्योतिरीन्द्रनाथ ठाकुर तथा भतीजे गगनेन्द्रनाथ एवं अवनीन्द्रनाथ जैसे स्थापित
चित्रकारों, यहाँ तक कि नन्दलाल बसु
की कला-छाया से दूर और सर्वथा अलग कलाशैली गढ़नेवाले रवीन्द्रनाथ को निकट से
पहचानने में यह पुस्तक हमारी सहायता करती है और उन तत्त्वों की व्याख्या करती है
कि उन्हें भारत का प्रथम आधुनिक चित्रकार क्यों कहा गया ?
डॉ. साहा ने रवीन्द्रनाथ द्वारा अंकित मुखानुकृति, विशेषकर स्त्रियों की, का विश्लेषण करते हुए उनके श्यामल वर्ण और भावपूर्ण आँखों की समन्विति को लक्ष्य किया है। पुरुषों की आँखों में भी ऐसे भाव पढ़े जा सकते हैं। अपने चित्रों में ऐसी विलक्षणता रवीन्द्रनाथ ही उत्पन्न कर सकते थे। प्रथानुगत या परंपरागत चित्रण, प्राच्य और पाश्चात्य कला प्रविधियों से परे, कोलकाता या शांतिनिकेतन में रहते हुए भी, बंगाल शैली से सर्वथा दूर रवीन्द्रनाथ ने एक ऐसी अपूर्व एवं मौलिक सृष्टि की, जिसके बारे में वह स्वयं कहते हैं -- ‘‘चित्रकार गाना नहीं गाता, धर्मकथा नहीं सुनाता, चित्रकार का चित्र कहता है -- ‘अयम् अहम भोऽ’ -- यह रहा मैं।’’
उनके कला कर्म पर काफ़ी कुछ कहा और लिखा गया है।
इस पुस्तक के लेखक ने पॉल वेलेरी, आन्द्रे जींद,
स्टेला क्रैमरिश, एण्ड्रयू रॉबिन्सन-जैसे पाचात्य कलाविदों तथा आनंद
कुमारस्वामी, अवनीन्द्रनाथ, नन्दलाल बसु, मुकुल दे, मुल्कराज आनंद,
के.जी. सुब्रमण्यन, पृथ्वीश नियोगी, श्रीपतराय, जगदीश स्वामीनाथन
आदि के उन विचारों का भी आकलन किया है, जो रवीन्द्रनाथ के चित्रों के बारे में कहा गया है।
आर्टपेपर पर बड़े आकार में सुमुद्रित
रवीन्द्रनाथ के बाईस प्रतिनिधि रंगीन चित्रों और पोस्टकार्ड आकार के क़रीब पचपन
रेखांकनों चित्रों से सुसज्जित यह कृति न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है।
बेहतर होता प्रकाशक इसका सजिल्द संस्करण प्रकाशित करते तो यह कृति और भी भव्य एवं
उपहार योग्य होती।
पुस्तक : रवीन्द्रनाथ की कला सृष्टि, लेखक : रणजीत साहा, प्रकाशक : प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, लोधी रोड, नई दिल्ली 110003, प्रथम संस्करण : 2018, सचित्र, पृष्ठ 154, मूल्य 255 रुपये, रॉयल (18x24 से.मी.)
चर्चित कलाकारों से उनके कलाकर्म पर आत्मीय बातचीत
कला संवाद
शशिभूषण बडोनी
भुनेश्वर
भास्कर एक जाने-माने कलाकार हैं और कला पर यत्र-तत्र लेख एवं
समीक्षा आदि भी लिखते हैं। चर्चित कलाकारों से उनके कलाकर्म पर आत्मीय बातचीत पर
आधारित कला संवाद उनकी पुस्तक पाठकों के हाथ में है। इस पुस्तक में समकालीन
कलाकारों से कला के अनेक पक्षों पर अत्यन्त रोचक एवं कला सम्बन्धी गहन चर्चा व
सम्वाद हुआ है और लगभग इतने ही अन्य कलाकारों से एक पृथक अध्याय में संस्थापन कला
(इन्स्टालेशन आर्ट) पर गहन चर्चा भी।
प्रथम भाग में कलाकारों से
प्रश्नोत्तर रूप में साक्षात्कार दिए गये हैं तथा दूसरे भाग संस्थापन कला (इन्स्टालेशन
आर्ट) में लेख रूप में बातचीत का सार दिया गया है। ये सभी साक्षात्कार महत्त्वपूर्ण
कला और साहित्य की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। इन पत्रिकाओं में ‘आजकल’, ‘समकालीन
कला’ (ललित कला अकादमी की पत्रिका), ‘कला दीर्घा’, ‘जनपथ’, ‘कला भारती’ आदि प्रमुख हैं।
जिन जाने माने वरिष्ठ कलाकारों से यह साक्षत्कार लिये गये हैं उनमें प्रमुख हैं- रामेश्वर बरूटा, अर्पणा कौर, युसूफ, वीरेश्वर भट्टाचार्य, गोगी सरोज पाल, मनु पारेख, वेद नायर, के आर सुबन्ना, अमिताभ दास, माघवी पारेख, श्याम शर्मा, विवान सुन्दरम आदि। इसके अलावा दूसरे भाग में हैं गायत्री सिन्हा, पार्थिव शाह, राम रहमान, अतुल भल्ला, शमशाद हुसैन, प्रीवीर गुप्ता, जगन्नाथ पंडा, नरेश कथूरिया, सीमा कोहली और पारूल दवे मुखर्जी आदि।
रामेश्वर बरूटा मानते हैं
कि बिना विचार के कला संभव नहीं। एक प्रश्न अक्सर सभी साक्षत्कारों में लेखक से भी
और कलाकार से भी पूछा जाता है, और वह होता है उनकी आरम्भिक रचनाक्रम को लेकर। यहाँ पर भी
बरूटा से जब भुनेश्वर ने पूछा कि आरम्भिक दिनों की चित्र शृंखलाओं के संदर्भ में
बताएँ? तो बरूटा
का उत्तर अत्यन्त रोचक है। वह बताते हैं- “जब तक मैं कॉलेज में था,
व्यक्ति चित्र (पोर्ट्रेट) खूब बनाता था। लाइव पोर्ट्रेट
बनाने के क्रम में मैं चेहरे पर भाव उत्पन्न करने वाली रेखाओं पर ज्यादा ध्यान
देता था। मेरी कोशिश होती थी कि चित्रों में व्यक्ति के अन्तः भाव झलकें। कभी एक-एक
झुर्रियों को बनाया तो कभी प्रयोग भी किया। इतना व्यक्ति चित्र बनाया कि मन भर
गया। किसी चीज से मन भर जाता है तो बदलाव जरूरी हो जाता है। तब हम नए की खोज में
निकल पड़ते हैं। एक के बाद दूसरी-तीसरी, निरन्तर खोज जारी रहती है। सन् 1967 में त्रिवेणी में रहते हुए कम्पोजीशन बनाना शुरू किया।
समाज में रहते हुए देखा एवं महसूस किया कि एक वर्ग ऐसा है जिसके पास खाने-पीने के
साथ साथ ऐशो-आराम की सारी सुविधाएँ हैं, वह मस्त है। दूसरी तरफ एक बड़ा समुदाय ऐसा है जो पेट की आग
बुझाने या एक रोटी के लिए संघर्ष करता है। दिन-रात मजदूरी करता है। भूखे,
सिकुड़े, नंगे, दबे-कुचले लोग जूठी रोटी खाने पर मजबूर हैं। संघर्षरत वर्ग
को लेकर मैने कार्य करना शुरू किया। सन् 1970 में मैंने ‘गोरिल्ला’ सीरीज शुरू की। इसका कारण भी हमारा
समाज ही है। मनुष्य को अमानुष के रूप में दिखाया। ‘आप चले जाइए किसी दफ्तर या
कार्यालय में चपरासी से लेकर बड़े बाबू तक के व्यवहार में आपको गोरिल्ला नजर आएगा’
उनका व्यवहार ऐसा होगा कि आप नर्वस हो जायेंगे।’’
अर्पणा कौर ने कला को अंर्तमन और भावनाओं की अभिव्यक्ति कहा। कलाकार युसूफ ने आत्मा को विस्तार देने की सहज प्रक्रिया को कला कहा। गोगी सरोज पाल का अभी हाल ही देहान्त हो गया। उनका बहुत महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार इस संग्रह में है। जिसमें वह जिक्र करती हैं कि ‘यथार्थ, विचार और कल्पना’ का समावेश है कला। गोगी सरोज पाल मशहूर लेखक यशपाल की भतीजी थीं। मनु पारेख और माधवी पारेख पति-पत्नी हैं। दोनों बड़े जाने-माने कलाकार है। मनु पारेख के लिए जहाँ कैनवस एक मंच और रंग एक चरित्र है तो माधवी कहती हैं कि कला ‘अंतर्मन की अभिव्यक्ति है।’ वेदनायर ‘जीवन अनुभवों को रंग - रेखाओं में व्यक्त करने को ही कला कहते है। के आर सुब्बना कहते हैं कि कला वही है जो अपने आप अभिव्यक्त हो। कलाकार श्याम शर्मा कला को ‘समाज के प्रभाव की मौलिक अभिव्यक्ति’ कहते हैं। श्याम से जब भुनेश्वर यह प्रश्न करते हैं कि- ‘कला-सृजन के साथ-साथ आप लेखन एवं रंगमच से भी जुड़े हैं। आप कला-समीक्षा करते रहे हैं। मेरी जिज्ञासा है कि आपकी कला की समीक्षा का मुख्य आधार क्या है, बताएं? इस प्रश्न के उत्तर में कलाकार श्याम का उत्तर है- ‘कला की समीक्षा का मूल आधार है- ‘मौलिकता, मौलिक चिंतन, मौलिक आकृति, मौलिक सरंचना और अभिव्यक्ति की सरलता’ इसी को आधार मानकर मैं चित्रों को देखता-परखता रहा हूँ तथा अपनी समीक्षा प्रस्तुत करता रहा हूँ। कलाकार विवान सुंदरम के अनुसार ‘कला का सरोकार सामाजिक-राजनैतिक उथल पुथल से है।’
‘संस्थापन कला’ नाम से इस
पुस्तक में एक पृथक अध्याय है। इसमें संस्थापन कला यानि इन्स्टालेशन आर्ट के बारे
में कुछ कलाकारों से उनके विचार जानने के बाद भुनेश्वर भास्कर ने वह आलेख उन
कलाकारों के विचारों सहित दिया है। प्रत्येक कलाकार से इस संस्थापन कला के बारे
में सात-आठ प्रश्न एक साथ किये गये हैं और उन पर कलाकारों ने जो जबाब दिये हैं,
वह आलेख रूप में भुनेश्वर ने प्रस्तुत किया है। प्रश्न
संस्थापन कला से सम्बन्धित हैं। प्रथम प्रश्न कुछ इस तरह का है,
‘पिछली सदी के अंतिम दशकों में समकालीन भारतीय कला-परिदृश्य
में ‘इंस्टालेशन आर्ट’/ ‘संस्थापन कला’ माध्यम की ओर अनेकानेक कलाकारों का ध्यान
गया है और तमाम तरह के वाद-विवाद के बीचो-बीच इस कलारूप के नामकरण,
स्वरूप और व्याकरण को लेकर आप किस तरह सोचते-विचारते हैं ?’
विवान सुंदरम ने इसे ‘पहल’,
गायत्री सिन्हा ने एक ‘नया माध्यम’ और पार्थिव शाह ने इसे
संस्थापन नहीं ‘स्थापना कला’ कहा है। मनु पारेख इसे एक ‘स्वंतत्र-संलग्न’ होना
बताते हैं। अतुल भल्ला इसे ‘इंसान के अन्दर’ है, बताते हैं तो प्रोबीर गुप्ता इसे
‘कला भाषा’ बताते हैं। राम रहमान इसे ‘जड़ों की सांस्कृतिकी से सीमाओं का अतिक्रमण’
बताते हैं। शमशाद हुसैन हर संस्थापन में अपार संभावनाएँ बताते हैं। कलाकार अर्पणा
कौर ‘हर पल संस्थापन’ बताती हैं। वह एक स्थान पर यह इंगित भी करती हैं,
जो रेखांकन योग्य है ‘संस्थापन कला-रूप के लिए सुयोग्य है।’
पश्चिम में बहुतायत संख्या में संग्रहालय है लेकिन भारत में नहीं हैं। इस कला-रूप
को बढ़ावा देने के लिए संग्रहालयों के विकास की आवश्यकता है। कलाकार जगन्नाथ पांडा
इसे ’देखने का नज़रिया’ कहते हैं। कलाकार गोगी सरोज पाल संस्थापन कला को ‘जीने का
ढंग’ बताती हैं। नेरश कपूरिया इसे ‘प्रश्न अपने आप में एक संस्थापन’ है,
कहते हैं। अभिताव दास इसे ‘जीवन का अविभाज्य अंग’ कहते हैं।
सीमा कोहली इसे ‘दृष्टि पर आग्रह होना’ बताती हैं। पारूल दवे मुखर्जी इसे ‘संस्थापन
कला क्यों’ कर प्रश्नवाचक ही बना देती है।
इस तरह यह पुस्तक
साक्षात्कार की एवं संस्थापन कला पर केन्द्रित उपरोक्त कलाकारों के विचारों से
संम्पन्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति बन गई है। कलाकारों की रंगीन व श्वेत श्याम
कलाकृतियाँ इस पुस्तक को खास एवं संग्रहणीय बना देती हैं।
पुस्तक : कला संवाद, लेखक
: भुनेश्वर भास्कर, प्रकाशन : प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, मूल्य : रू 280/- पेज - 190
सौन्दर्यबोध के आधार-तत्वों पर विमर्श करती पुस्तक
संवेदना और कला
डॉ लीना मिश्र
डॉ अवधेश मिश्र
देश के चर्चित कलाकार, कला-समीक्षक, संपादक एवं अनुभवी कलाचार्य हैं। वह राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सतत कला प्रदर्शनियाँ,
कला शिविर एवं अन्य कला-गतिविधियाँ आयोजित करते रहे हैं।
कला के प्रति उनका गहन सरोकार और साधना-सातत्य जग-जाहिर है।
उनकी साधना के कई आयाम हैं – विजूका (vizooka) मुख्य स्वर है, उनके क्रियात्मक कला-कर्म का। इसी तरह कला दीर्घा,
अन्तरराष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका के माध्यम से उन्होंने उत्तर प्रदेश और भारतीय
कला-परिदृश्य को प्रलेखित कर कलाजगत को अमूल्य भेंट दी है। उत्तर प्रदेश के बीसवीं
सदी के आरम्भ से लेकर अबतक का क्रमवार इतिहास डॉ अवधेश मिश्र द्वारा लिखित पुस्तक
- पहला दस्तावेज़ उनके लगभग पैंतीस वर्षों के अनुभव और प्रामाणिक जानकारी का
सुफल है।
लगभग
आठ वर्ष पहले प्रकाशित कला विमर्श अपनी तरह की पहली पुस्तक थी जो पाँच
खण्डों - विचार, परम्परा, धरोहर, पाश्चात्य
और समकालीन स्तम्भों में विभक्त प्रख्यात कला मनीषियों द्वारा लिखे गए कला पर पचास
महत्त्वपूर्ण आलेखों से अनुस्यूत सभी कलाकारों, कला-प्रेमियों और कला-अध्येताओं के लिए बेहद उपयोगी साबित
हुयी।
इसी
तरह प्रलेक प्रकाशन द्वारा सद्य प्रकाशित पुस्तक "संवेदना और कला"
में उनकी कला दृष्टि और साधना का संतुलन भलीभाँति देखने को मिलता है। डॉ अवधेश
मिश्र इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक के संपादक हैं। पुस्तक
में डॉ मिश्र ‘संवेदना और कला’ के गहन सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं
और बताते हैं कि “किसी भी रूप या माध्यम में होने वाली अभिव्यंजना अथवा कला का
जन्म,
संवेदनाओं और अनुभूतियों की त्वरित अथवा दीर्घकालिक प्रतिक्रियास्वरुप
होता है क्योंकि संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ प्रकारान्तर से परिवेश गढ़ती हैं, जीवन-शैली तय करती हैं, खान-पान, रीति-रिवाज, रूप-रंग ढालती हैं, एक खाँचे में देखने-सुनने और जीने को प्रेरित करती हैं। ये
किसी के व्यक्तित्व निर्माण से लेकर उसके व्यवहार, जीवनचर्या, विचार, कल्पनाओं
और रचनात्मकता आदि को स्वाभाविक रूप से प्रभावित करती रहती हैं और धीरे-धीरे ये एक
पहचान के रूप में उभरती हैं। हम हाव-भाव को देखकर व्यक्ति, समूह या स्थान विशेष के लोगों को पहचानने और उनसे व्यवहार
करने लगते हैं, उसकी पसन्द-नापसन्द
समझने लगते हैं। हम एक पहचान के लोगों के प्रति अनेक प्रकार की सर्वमान्य धारणाएँ
विकसित कर लेते हैं, जैसे
अमुक लोग सुन्दर, असुन्दर, सरल, क्रूर या
कट्टर होते हैं, यहाँ के लोग चपटी नाक
वाले और वहाँ के लोग नीली आँखों वाले होते हैं, इस वर्ण, सम्प्रदाय
या स्थान विशेष के लोग शाकाहारी या अमुक लोग मांसाहारी होते हैं अथवा इस क्षेत्र
और बोली-भाषा के लोग सुसंस्कृत और सहज होते हैं इत्यादि। इन्हीं अनेक विशिष्टताओं
के आधार पर इनके सांस्कृतिक मूल्यों, बौद्धिक तल और रुचि-अरुचि, वैचारिक सम्पन्नता-विपन्नता का आकलन किया जाता है, या कहें वे अपनी एक पहचान या स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं।”
रचना
के विषयों और विद्यार्थी जीवन में इसके सम्बन्ध में आने वाली समस्याओं के सन्दर्भ
में भी संपादक ने अपने स्पष्ट विचार रखे हैं और बताया है कि रचना-विषय हमारे ही
आस-पास बिखरे होते हैं जिन्हें देखने की आँख होनी चाहिए। और यह परिवेश तथा संस्कारों
से ही प्राप्त होता है। ऐसे अनेक उदाहरणों की चर्चा करते हुए डॉ अवधेश मिश्र
भारतीय कला-इतिहास की सीमाओं पर भी बात करते हैं और कहते हैं कि “भारतीय संस्कृति
में गुहा-कला, मन्दिर और अन्य
स्थापत्य कला, लोक और पारम्परिक कला
(दृश्य और प्रदर्शनकारी कला के विविधस्वरूप) के न जाने कितने उदाहरण बिखरे पड़े
हैं,
जहाँ कलाकारों ने स्थानीय संवेदनाओं को अनुभूत करते हुए लोक
से उद्भूत एक कलारूप गढ़ा है, उसे
समय-समय पर पीढ़ी दर पीढ़ी ने परिमार्जित और समृद्ध किया है और आज भी अपने
सांस्कृतिक संरक्षण और उन्नयन के मूल्य पर समर्पण भाव से उसका प्रतिनिधित्व कर रहे
हैं। विरासत में प्राप्त इसी समृद्ध और उर्बर सांस्कृतिक धरातल पर विविध प्रकार की
आधुनिक और समकालीन कलाओं का भी जन्म हुआ है, और उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ विकसित हुयी हैं, जहाँ हम वैश्विकता, विकास और प्रयोग के नाम पर अपनी स्थानीय संवेदनाओं, तत्त्वों और मूल्यों से विरत होकर आयातित संवेदनाओं के साथ
भी प्रयोग कर रहे है, जो निश्चित
रूप से हमारे सृजन की मौलिकता के क्षरण का कारण बन रहा है। उपरोक्त चिंताएँ हमारे
मनीषियों को सदैव रही है और समय-समय पर संवेदना, अनुभूति, संज्ञान, संस्कार, संस्कृति, सभ्यता और मानव जीवन पर पड़ने वाले इनके प्रत्यक्ष और परोक्ष
प्रभावों के प्रति सचेत किया है, उचित
मार्गदर्शन और कालजयी स्थापनाएँ दी हैं। आज बहुधा यह देखने में आता है कि
रचनाधर्मी अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं, मान्यताओं, संवेदनाओं
से वेपरवाह केवल शिल्पगत विशेषताओं के परिमार्जन और प्रयोग में व्यस्त हैं, जो निश्चित रूप से उन्नत शिल्प होते हुए भी हमारी आत्मा और
सरोकार से बहुत दूर होगा और कला प्रेमियों एवं जन-सामान्य पर कोई वैचारिक या
सौन्दर्यात्मक प्रभाव छोड़ पाने में विफल। आने वाली पीढ़ियाँ हमारे मौलिक चिंतन और
सांस्कृतिक मूल्यों से अनभिज्ञ और विरत न हों और उनकी अभिव्यंजनाओं में भी हम इनके
दर्शन पा सकें, इसलिए दस
महत्त्वपूर्ण भारतीय मनीषियों और विचारकों द्वारा किये गए कला-विवेचन और
सौन्दर्य-दृष्टि को ‘संवेदना और कला’ पुस्तक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया
है। इस पुस्तक में कला का विवेचन/डॉ. श्यामसुन्दर दास; कला और सौंदर्य/राम चन्द्र
शुक्ल; आदिम कला/असित कुमार हल्दार; जीवन और विचार में कला का स्थान/नीहार रंजन
राय; बाल कला: कुछ चिन्तन/मुल्कराज आनंद; अमूर्त कला/शमशेर बहादुर सिंह; भाषा, कला और औपनिवेशिक मानस/सच्चिदानंद वात्स्यायन; सौन्दर्य की
वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास/डॉ राम विलास शर्मा; प्रागैतिहासिक कला और बाल
कला/दिनकर कौशिक; रस, सौन्दर्य
और आनन्द/डॉ. सुरेन्द्र वारलिंगे के महत्त्वपूर्ण विचारों को साभार संकलित किया
गया है ।”
कला का विवेचन
अध्याय में श्याम सुन्दर दास कहते हैं कि मनुष्य चेतना-संपन्न प्राणी है।
वह अपने चारों ओर की सृष्टि का अनुभव प्राप्त करता है। वह उसे देखता-सुनता है और
उसकी छाप उस पर पड़ती है। इस तरह उन्होंने संस्कार और वृत्तियाँ, अभिव्यंजना की शक्ति, कला और अभिव्यंजना, कला और मन:शक्तियाँ,
कला और आचार, कलाओं का वर्गीकरण, उपयोगी और ललित कलाएँ, ललित कलाओं का आधार, ललित
कलाओं के आधार-तत्व, वास्तुकला, मूर्ति कला, चित्रकला, संगीत कला, काव्य कला से
ललित कलाओं के सम्बन्ध और परस्पर तुलना, कविता और संगीत, काव्य कला और चित्रण कला,
मूर्ति कला-वास्तु कला तथा कविता, ललित कलाओं का ज्ञान, काव्य कला का महत्त्व आदि उप-शीर्षकों
के अन्तर्गत बहुत कुछ ऐसा बताया है जो कलाओं की दुनिया को बाहर से देख रहे लोगों
के लिए एक सम्पन्न दृष्टि प्रदान करने वाला है, ताकि वे कला को बाहर से न देख कर
कलाओं के साथ आवाजाही कर सकें और अपनी स्वयं की भूमिका उनकी प्रस्तुतियों के बीच
तलाश सकें।
कला और सौंदर्य शीर्षक के अन्तर्गत रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं – सुन्दरता किसी न किसी रूप में सबको भाती है पर सुन्दरता किसे कहते हैं इसमें बहुत मतभेद है। हमारी प्राचीन सभ्यता यही बताती है कि सुन्दर वही हो सकता है जो सत्य और शिव है। सुन्दरता किसमें है यह जानने के लिए सत्य और शिव को भी पहचानना पड़ेगा। मान लीजिए हम सौंदर्य को पहचानना चाहते हैं तो पहले सत्य और शिव को जानना पड़ेगा। .....वह आगे कहते हैं “बहुत से आधुनिक कलाकारों ने यह बार-बार साबित किया है कि जिन वस्तुओं को हम असुन्दर समझते रहे हैं वे भी चित्र के रूप में निर्मित होने पर सुन्दरता बिखेरती हैं। यह बात साहित्यकारों ने भी मानी है। तभी तो किसान, मजदूर, विकृत, भूखमरे के चित्रों का बनाना भी आरम्भ हो सका। कलाकार देवी प्रसाद राय चौधरी के द्वारा निर्मित चित्र ‘आँधी में कौवा’ एक सफल कलाकृति समझी जा सकी। संवेदना और कलाओं पर विधिवत चर्चा करते हुए रामचन्द्र शुक्ल सौंदर्य को विविध प्रकार से व्याख्यायित करते हैं। वह कहते हैं कि सच तो यह है कि सौंदर्य बाह्य रूपों में भी होता है और दर्शक के मन में भी.... यह कहना कि केवल मन में सौंदर्य है भूल है क्योंकि यदि मन में ही सौंदर्य है तो वस्तु की क्या आवश्यकता। बिना वस्तु मनुष्य अपने मन में सौंदर्य का बोध करता जा सकता है। हो सकता है कुछ काल्पनिक व्यक्ति ऐसा करते भी हों पर एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि जन्म के साथ ही हम हमारी अपनी इंद्रियों से वस्तु का आभास करना आरम्भ कर देते हैं जबकि कल्पना हमसे कोसों दूर रहती है और जिन वस्तुओं को हमने जन्म से देखना आरम्भ किया है उसका नक्शा हमारे अचेतन मन पर सदैव अंकित रहता है। आगे चलकर यदि हम मन में सौंदर्य खोजने का प्रयास करें तो इन वस्तुओं को नहीं भुलाया जा सकता। इतना ही नहीं ईश्वर की कल्पना करते समय भी उसे हम संसार में अच्छी वस्तुओं, आकृतियों के आधार पर ही कल्पित करते हैं, जैसे - राम, कृष्ण, गणेश, शिव इत्यादि मनुष्य की आकृतियाँ या ऐसे ही सांसारिक रूप से सामंजस्य की आकृतियों में। हाँ, निराकार ब्रह्म में लीन होना दूसरी बात है जिसका चित्रकला में शायद कोई ताल्लुक नहीं, क्योंकि चित्र में रूप या आकृति आवश्यक है चाहे वह अति सूक्ष्म ही क्यों न हो।” इसी तरह “सौंदर्य और विलक्षणता” उपशीर्षक के अंतर्गत रामचन्द्र शुक्ल ने विस्तार से अपने विचार रखे हैं, जिनके माध्यम से संवेदना और उसकी कोख से जनमी कला तक सहजता से पहुँचा और आस्वाद किया जा सकता है।
आदिम कला शीर्षक के अंतर्गत असित कुमार हल्दार कहते हैं कि “मनुष्य की महत्ता इस बात में नहीं है कि उसमें अतिमानव होने की क्षमता है, वरन इस बात में है कि वह मानव है और स्रष्टा है। इस विचित्र संवेदनशील सृजनात्मक प्रवृत्ति ने ही उसे अन्य जीवित प्राणियों में सर्वोत्तम स्थान दे रखा है। निर्माता रूप में उसके प्रारम्भिक विकास का इतिहास प्रागैतिहासिक कला एवं संस्कृति के अवशेषों में पाया जा सकता है। सुदूर युगों में यह विकास कैसे हुआ इसे पूर्ण रूपेण कोई नहीं बता सकता। सन् 1879 ई. में स्पेन देश के एक पुरातत्त्व अन्वेषक ने अल्टामीरा में प्रागैतिहासिक गुफा निवासियों की कला का सर्वप्रथम पता लगाया था। इस खोज से यह प्रकट हुआ कि हमारे आदिम पूर्वज अपनी जीवन कथा आखेट-दृश्यों, धर्म-संस्कारों तथा अन्य प्रसंगों को अपने गुफा-गृहों की दीवारों पर अंकित किया करते थे। ......आदिम कला तथा संस्कृति उच्चकोटि की मानसिक सभ्यता पर, जिसने तदनन्तर उन्नति की, सदा प्रभाव डालती रही है। इसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। हिन्दू, बौद्ध तथा ईसाई धर्म की पूजन रीति में बहुत से आदि कालीन धार्मिक कर्म पद्धति भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियों में अन्तर्निहित हैं और इसी कारण क्रॉस, त्रिशूल, चन्द्र तथा स्वस्तिका जैसे मुख्य भाव और लाक्षणिक चिह्न इस समय भी दृष्टिगोचर होते हैं। नरतत्त्वीय विज्ञान के विद्यार्थी जानते है कि आदिम मानव ने अग्नि के आविष्कार से किस प्रकार अन्य पदार्थो का ज्ञान प्राप्त किया जो कि प्रायः चमत्कारिक रीति से विकसित होते गए। प्राकृतिक गुफा-गृहों में रहने के समय जो मृतक शरीर के दाह कर्म करने के लिए बडे़-बडे़ पत्थरों से बनाए गए भवन का निर्माण किया गया इससे गृह निर्माण विद्या के आरम्भ का पता चलता है।”
पुस्तक के अगले अध्याय - जीवन और विचार में कला का स्थान में नीहार रंजन राय कहते हैं कि “ऐतरेय ब्राह्मण के एक विशेष अंश में किसी कलाकृति के लिए दो शर्तें रखी गई हैंः एक यह कि - कला अवश्य ही कौशल से युक्त हो और दूसरा यह कि - कला अवश्य ही छंद से युक्त अर्थात ‘छंदोमय’ हो जिसका तात्पर्य भारतीय अर्थ में लय, संतुलन, अनुपात और सुसंगति आदि से ग्रहण किया जाता है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ का यह अंश कला को परिभाषित करने वाला सबसे प्रारम्भिक प्रयास प्रतीत होता है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि इस सहस्त्राब्दी के प्रारम्भ में, जहाँ से ईसा का काल शुरू होता है, हम एक ऐसी स्थिति पर पहुँच गए थे जिसमें यह प्रतिपादित किया गया कि कला कही जा सकने वाली किसी वस्तु में कुशल क्रियाशीलता अवश्य होनी चाहिए। परन्तु इसके बाद भी तर्क दिए गए और वह यह कि कौशल से युक्त सभी वस्तुओं को आवश्यक तौर पर कला नहीं कहा जा सकता और वे ही वस्तुएँ कला के विषय के रूप में गृहीत हो सकती हैं जिनमें कौशल होने के साथ-साथ छंद भी हो। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस ‘कुशलता’ का एक खास लक्षण होना चाहिए और इसका और इसका छंदोमय होना भी आवश्यक है। मानवीय कल्पना, कौशल और पटुता की ही तरह छंद के भी विविध रूप हो सकते हैं। छंद का रूप म्यान से खींची गई तलवार की तीखी वक्र रेखा, किसी लता की लहरदार वक्रता, किसी लोरी की सामान्य लय के समान ही सरल हो सकता है। यह छंद एलोरा में किसी ब्राह्मण गुफा के फलक की नक्काशी, भरतनाट्यम नृत्य का अनुक्रम, भास या कालिदास के नाटक अथवा उदाहरण के लिए उपनिषदों के उल्लासपूर्ण गीतिकाव्य के समान जटिल भी हो सकता है। परन्तु हमारी संस्कृति के उस प्राथमिक स्तर तक ऐसा प्रतीत नहीं हुआ था कि हमारे शिल्प उत्पादनों को उनके तत्सम्बन्धी छंदों की सरलता या जटिलता के अनुसार वर्गीकृत या मूल्यांकित किया गया हो; ऐसा भी नहीं लगता कि कला से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रयोजन पर ध्यान भी दिया गया हो। जिस आवश्यकता और उपयोग के लिए इसकी रचना की गई उसकी प्रकृति या उसके स्वभाव पर ध्यान दिया गया ऐसा भी प्रतीत नहीं होता। ऐसा भी नहीं लगता कि कुशल क्रियाकलापों के भिन्न छंदोमय विषय तथा भिन्न विषयों के चलन के लिए आवश्यक कौशल की मात्रा या गुण में किसी प्रकार का अन्तर लक्षित किया गया हो। मानवीय अनुभूति और मस्तिष्क में होने वाली प्रतिक्रिया के स्वभाव के बारे में भी हमारे पास कुछ कहने को नहीं है। ‘ऐतरेय’ का जो उद्धरण मैं दे रहा हूँ उसमें शायद इन बातों पर विचार नहीं किया गया। वस्तुतः ऐसा लगता है कि ऐतरेय ऋषि किसी सर्वसाधारण अपवर्त्य नियम का प्रतिपादन कर रहे थे जिसे ‘कला’ कहा गया या कला के रूप में उसे मान्यता मिली। उनके इस उपवर्त्य नियम के अनुसार मनुष्य के हाथों निर्मित वह हर वस्तु ‘कला’ या ‘शिल्प’ है जो लय, संतुलन, अनुपात और सुसंगति आदि की स्थितियों में तैयार होती है; भले ही इसमें मस्तिष्क की सचेतन क्रियाशीलता न हो या उसने प्रेक्षक की अनुभूति तथा कल्पना में अपेक्षित भाव पैदा न किया हो जैसे लकड़ी का बना रथ या धातु का कोई साधारण बरतन। सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में ‘शिल्प’ की यही आधारभूत परिभाषा जमी हुई प्रतीत होती है। जिस किसी श्रमिक ने अपने उत्पादन में इन दो आवश्यकताओं को पूरा किया उसे ‘शिल्पी’ कहा गया जैसे ईंट बनाने वाला, खुदाई करने वाला, जिसने ताँबे की प्लेट पर खुदाई की या कोई सुलेखक।”
तीन से पाँच वर्ष की उम्र तक बालक अपनी स्नायविक ऊर्जा का प्रदर्शन करते हुए घसीट लिखता है या मन की उड़ान या कल्पना के अनुसार रेखायें बनाता है अथवा क्रमहीन असंगत रेखायें खींचता है। पाँच वर्ष की उम्र प्राप्त कर लेने पर बालक प्रारम्भिक रंगों-जैसे- लाल, नीला तथा हरा-से खेलने की प्रवृत्ति दर्शाता और आदिम कोटि के स्थूल रूपाकार अंकित करता है। इनमें मुख्यतः पिता, माता, भाई या बहिन की तथाकथित आकृतियाँ होती हैं। पिता की आँखें प्रायः लाल रंग में होती हैं जो क्रोध का परिचायक है। माँ की आँखें नीली या भूरी होती हैं। पालतु पशु जैसे कुत्ते, बिल्ली और पास पड़ोस के जीव जन्तु मानव आकारों के निकट बडे़ विलक्षण ढंग से चित्रांकित होते हैं।
पाँच से नौ वर्ष की उम्र के बीच बालक रूपाकृतियों से खेलता है। वह जो रेखायें खींचता है वे एक आकार-प्रकार लेना प्रारम्भ कर देती है जिनमें बहुत कुछ वास्तविकता होती है। इसके अतिरिक्त वह अपनी, आपकी तस्वीर या शक्ल बनाने की कोषिष करता है। बालक जिस परिवेश, वातावरण में रहता है, घूमता-फिरता है, उसकी भी छाप दीख पड़ती है क्योंकि वह स्कूल, घर, कुर्सी, मेज, पेड़, फूल, सूरज, चाँद और तारे आदि भी बनाने लगता है।
दस वर्ष की उम्र से आगे बालक या बालिका बड़े लगते हैं। वे इस चरण में बाह्य दृष्टि जगत का अनुकरण करने लगते हैं। विभिन्न वस्तुओं, जीवों के आकार की ओर उनका ध्यान आकर्षित होता है। वे संकेत, गति और मुखाकृति के भावों को समझने और उन्हें अपनी कला में व्यक्त या अंकित करने लगते हैं। वे विशाद, हर्ष या शक्ति-प्रेरणा की विशिष्ट चित्तवृत्तियों को भी प्रदर्षित करने लगते हैं। इस अभिव्यक्ति के लिए वे सिर, पैर तथा हाथ को अभिनयात्मक ढंग से आड़ा-तिरछा या झुका हुआ बनाते हैं।
आगे चलकर किशोरावस्था में विकासशील बालकों के आसपास का प्राकृतिक परिवेश मानवीय परिवेश में रूपान्तरित होना प्रारम्भ कर देता है। इस बात की कोई जानकारी नहीं होती है कि यह अभिव्यंजनावादी अवस्था आगे चलकर क्या रूप लेगी। भावना-कल्पना का महत्त्व या आकृति का कोई मानक, आदर्श या वर्गीकरण नहीं होता। लेकिन प्रकाश और छाया की क्रीड़ा, संकेन्द्रीकरण और दृश्य का प्रत्यक्ष निरीक्षण होता है। जहाँ-तहाँ रचना के दृष्टिगत प्रयत्न मिलते हैं और यह रेखाओं तथा रूपों के ऐसे संघर्ष के माध्यम से होता है जिसमें वे अपने आपको सम्बंधित रख सके। और यह सम्बन्ध मुक्तभाव से होता है जिसमें भाव, अर्थ के संवहन की गत्यात्मक प्रेरणा और प्रवृत्ति का अनुसरण होता है।”
पुस्तक के अमूर्त कला अध्याय में शमशेर बहादुर सिंह लिखते हैं कि “कला की अभिव्यक्ति और समाज की आशाओं-आकांक्षाओं और क्षणिक समर्थताओं का एक सजीव और गतिशील दर्पण है। इस दर्पण में हम अपनी शक्लें देखते नहीं-पहचानते और समझते हैं। और जितना इस पहचान और समझ को अपने काम का-और इसलिए अपनी दिलचस्पी का पाते हैं, उसे अपनाते हैं। यह अपनाना ही कला से अपना सम्बन्ध जोड़ना यानी उस सम्बन्ध से अवगत होना है। आज विभिन्न कलाएँ और ज्ञान-विज्ञान निरन्तर एक दूसरे से टकराते, एक दूसरे में घुलते-मिलते, एक दूसरे की सीमाओं को बनाते-मिटाते, सिकोड़ते-फैलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि एक चित्रकार तान लेता है, एक गायक चित्रण करता है, एक कवि मूर्ति और मंदिर बनाता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि आकाश सीप है और जब शफ़क फूलती है, हम कह सकते हैं कि रंग तारसप्तक है। हम साँप की लीक देखकर कह सकते हैं कि इधर से साँप गया है, और दूसरे निशानों को देखकर कह सकते हैं फलाँ जानवर इधर से गुजरा है। ये लीकें और निशान, और इन्हीं की तरह विभिन्न आवाजें हमारे लिए चित्र और मूरत-घर का-सा अर्थ रखते हैं। अगर ये वह नहीं हैं, तो बेकार है, खिलवाड़ है, कूड़ा-करकट है।”
भाषा, कला और औपनिवेशिक मानस शीर्षक में सच्चिदानंद वात्स्यायन ने बताया है कि “हैवल के प्रोत्साहन और ठाकुर परिवार तथा शांतिनिकेतन के संरक्षण में पनपनेवाला यह आंदोलन स्वाभाविक और अनिवार्य भी था, भारतीय भी था, अपने समय में आधुनिक भी था और आज भी यह कहना चाहता हूँ कि सही भी था क्योंकि वह बड़ी गहराई में भारत की प्रतिभा और आकांक्षा के साथ जुड़ा हुआ था और उसे रूपायित भी कर रहा था। शिल्प और कलातंत्र की दृष्टि से उसे कई देशों से प्रेरणा ली, लेकिन मुख्यतया उन्हीं देशों से जिन्होंने दूसरे युगों में भारत से प्रेरणा ली थी- अर्थात् उसने भारतीय अस्मिता की खोज की वृहत्तर भारत के साथ ही जोड़ा। मैंने कहा कि यह कला आंदोलन भारत की तत्कालीन आकांक्षा और प्रतिभा से प्रेरणा भी ले रहा था और उसे रूप भी दे रहा था। लेकिन यह भी उसका एक पक्ष ही है। यह भी उल्लेखनीय है- और यह बात मैं उसकी प्रशंसा में कह रहा हूँ, उसकी भर्त्सना के लिए नहीं-कि उसका रूप कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह भारतीय जनमानस के लिए अंसवेद्य हो क्योंकि उसने भी कथा- अभिप्राय को त्याज्य नहीं माना बल्कि लोक तक पहुँचने का साधन बनाया। जो लोग उसकी आलोचना में उसके समकालीन वानगॉग और गोगा का नाम लेते हैं और यूरोप के चित्रकारों को संस्थान विरोधी और क्रान्तिकारी दिखाते हुए बंगाल स्कूल के चित्रकार को कट्टरपंथी अथवा अतीतोन्मुखी बताते हैं, वे इस बात को अनदेखा करते हैं कि इन यूरोपीय चित्रकारों का समाज उस समय भी विस्तारवादी था और अनूठे विदेशी अर्थात एग्जोटिक को सहज भाव से ग्रहण करता था, जबकि दूसरी ओर भारत की समस्या स्वरूप की पहचान और एक सही आत्मबिम्ब की प्रतिस्थापना की थी जिसका इसीलिए नए आयात के प्रति शंकालु होना स्वाभाविक था। इसमें उसका भाव प्रतिष्ठान के प्रति स्वीकार का नहीं, पूरे समाज के साथ एकप्राणता का था। बंगाल स्कूल क्रमशः निगति को प्राप्त हुआ लेकिन इसकी जवाबदेही उतनी उसके कलाकार पर नहीं है जितनी उस समय और उसके बाद के कालाचिंतक और आलोचक पर है जिसने न उसकी प्रेरणाओं को सही ढंग से निरूपित किया, न उसकी उपलब्धियों को सही पहचाना। न उसने आज तक इस तथ्य को सामना किया है कि बंगाल स्कूल तो अपने निष्प्राण हो जाने तक समाज से जुड़ा रहा, उसके द्वारा ‘समझा जाता रहा’; जबकि उसे उखाड़ फेंकने वाली आधुनिक कला की आज भी यह स्थिति नहीं है। यहाँ अगर मैं अलग से यामिनी राय का नाम नहीं लेता तो उनकी कला के प्रति अवज्ञा से नहीं बल्कि केवल इसलिए कि जिस तरह उन्होंने एक सीमित प्रादेशिक परम्परा से अपने को जोड़ते हुए नया कुछ प्राप्त किया था, उसी तरह दूसरे कई प्रदेशों में कई चित्रकारों ने भी किया। मुख्यधारा से हटकर छोटी-छोटी देशज परम्पराओं से प्रेरणा लेने की व्यापक प्रवृत्ति के एक उदाहरण वह जरूर हैं। इसी तरह मैं अगर अमृता शेरगिल का नाम भी अलग से नहीं लेता तो यह उनकी कला अथवा उनके अवदान की उपेक्षा नहीं है। और अब नाम लेता हूँ तो यह भी कहना चाहता हूँ कि जिस तरह आनुवांशिक रूप में उनमें दो जाति परम्पराएँ मिली थीं उसी तरह उनकी कला में भी मिली तो यह एक सहज और स्वाभाविक बात थी। और अगर दोनों क्षेत्रों में लगातार तनाव रहा जिसने कि उनको रचनात्मक प्रेरणा भी दी तो यह तनाव भी स्थिति का अनिवार्य परिणाम था। निश्चय ही उस तनाव का रचनात्मक उपयोग करने के लिए अमृता शेरगिल की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन कला के आलोचक उन्हें पारम्परिक और आधुनिक को जोड़ने वाले कलाकार का पद देते हुए परम्परा और आधुनिकता के बारे में और जो कुछ कहते हैं तनिक उसकी ओर भी तो ध्यान दें। बंगाल स्कूल और विशेष रूप से गगनेंद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस, क्षितीन्द्र मजूमदार, विनोद बिहारी मुखर्जी आदि के साथ जो अवज्ञा बरती गई है उसका उल्लेख तो मैंने किया है। जिसे आधुनिक कला कहा जाता है उसकी मुद्रा की भी कितनी निराधार स्फीति की जाती रही है यह भी तो देखना चाहिए। अमृता शेरगिल यदि आधुनिक थीं तो उनकी आधुनिकता में भारत के साथ जुड़ने की ललक का दर्द भी था, क्योंकि वह स्वयं भी एक तनाव-भरे ढंग से भारत के साथ जुड़ी थीं।”
पुस्तक में राम विलास शर्मा द्वारा लिखित सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास में स्पष्ट किया गया है कि “कलाकृति से जो सौन्दर्यबोध उत्पन्न होता है, वह भी दर्शक, पाठक या श्रोता के ज्ञान पर निर्भर होता है। कलाकृति का सम्यक ज्ञान न होने पर वह उस पर अपने भाव आरोपित करता है और समझता है कि सौन्दर्य कलाकृति में नहीं, उसके मन में है। इससे सिद्ध यह होता है कि उसकी सौन्दर्य कलाकृति में नहीं, उसके मन में है। इससे सिद्ध यह होता है कि उसकी सौन्दर्यानुभूति में अवास्तविकता का अंश मिला हुआ है। इससे कलाकृति के सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता असिद्ध नहीं होती। इटली के कवि दांते पर अपने निबन्ध में इलियट ने इटेलियन भाषा के न समझ पाने पर या कम समझ पाने पर भी दांते की कविता पढ़कर प्रसन्न होने की बात लिखी है। इसका कारण दांते की रचना में इलियट के अपने भावों का आरोपण हो सकता है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि काव्य सौन्दर्य इलियट के मन में है, न कि दांते के काव्य में। इग्लैंड के प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखक कौडवेल ने ‘सौन्दर्य’ पर अपने निबन्ध में सौन्दर्य क्या है, इस प्रश्न के सिलसिले में लिखा है,‘सबसे सीधा उत्तर यह है कि सभी वस्तुओं (कौडवेल का तात्पर्य सुन्दर वस्तुओं से है) से मनुष्य का सामान्य सम्बन्ध है; इसलिए सौन्दर्य मनुष्य में है। मनुष्य की एक दशा का नाम सौन्दर्य है। पूँजीवादी सौन्दर्यशास्त्री के लिए समस्या का यह बहुत सीधा समाधान इतना स्पष्ट मालूम होता है कि अन्य व्यक्ति कुछ और सोचे तो उसका धैर्य छूट जाता है।’ कौडवेल ने इस तरह के सौन्दर्यशास्त्रियों में इंग्लैंड के विचारक आई. ए. रिचार्ड्स और सी.के. औग्डेन की गणना की है और उनके आत्मगत सौन्दर्यवाद की आलोचना की है। किन्तु कोडवेल के लिए सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता भी नहीं है। वे उसे वस्तु और मानवमन का परस्पर सम्बन्ध मानते हैं। मानवमन से स्वतंत्र सौन्दर्य को वह भाववादी दार्शनिकों की कल्पना, सौन्दर्य-सम्बन्धी निराकार भावना मानते हैं। वास्तव में निराकार आदर्श सौन्दर्य की कल्पना करनेवाले भाववादी दार्शनिक वास्तविक जगत में उसकी वस्तुगत सत्ता से इनकार करते हैं। वे वस्तु के गुण को वस्तु से अलग करके देखते हैं। सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता का अर्थ है, सौन्दर्य नाम के गुण को वस्तु से अलग करके न देखना। कौडवेल ने आगे लिखा है, ‘सौन्दर्य सामाजिक है। वह वस्तुगत है क्योंकि उसका अस्तित्व मुझसे अलग समाज में है।’ जहाँ तक मनुष्य के भावजगत का सम्बन्ध है, उसका सौन्दर्य सामाजिक है। किन्तु प्रकृति का सौन्दर्य? उसकी अनुभूति सामाजिक है किन्तु वह सौन्दर्य, जहाँ तक वह वास्तव में प्रकृति का सौन्दर्य है, सामाजिक न होकर प्राकृतिक है। कौडवेल के चिन्तन में वस्तुगत सौन्दर्य और उसकी सामाजिक अनुभूति को मिला दिया गया है।”
बाल-विकास
एवं शिक्षा संदर्शिका
प्रशान्त
चौधरी
बाल-विकास
एवं शिक्षा संदर्शिका कनिष्क पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,
दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित
मनोविज्ञान पर आधारित एक चर्चित पुस्तक है जिसकी लेखिका डॉ प्रमिला श्रीवास्तव हैं
जिसका प्रथम संस्करण 2008 में प्रकाशित किया गया था। पुस्तक में लेखिका का बाल-विकास और उसके
मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन है और यही
पुस्तक की उपयोगिता है। इस संवेदनशील विषय पर पुस्तक का अभाव विद्यार्थियों और
अध्येताओं द्वारा निरंतर अनुभव किया जा रहा था, जो पूरी हो गयी। इस पुस्तक ने पाठ्यक्रम
सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए तो की ही है, जन-मानस
में बाल-मनोविज्ञान की दिशा में कुछ अनछुए और अनसुलझे सवालों को भी प्रकाश वृत्त
में लाकर उनपर चर्चा की गयी है और विमर्श में लिए प्रश्न सामने लाये गए हैं।
इस
पुस्तक में बाल-विकास एवं शिक्षा से सम्बंधित
अनेक आयामों पर विमर्श करते अलग-अलग ग्यारह अध्याय प्रस्तुत किये गए हैं जिसमें
प्रथम अध्याय में बालक के शुरुआती वर्षों के महत्त्व पर, दूसरे अध्याय में नए और
पुराने विचारकों द्वारा बाल -विकास, दार्शनिक विचारों, दृष्टिकोण एवं योगदान पर
विचार किया गया है। इसके तीसरे अध्याय में शिशुओं के विकास पर सविस्तार चर्चा की
गई है। चौथे अध्याय में बालक-बालिकाओं के शारीरिक विकास से परिचित कराया गया है। पांचवें
व छठे अध्याय में बालकों की विकास गति और भाषा के विकास और उसके रूप-सिद्धांत एवं
कार्य व भाषा सम्बन्धी दोषों और उसके रूप-विकारों पर चर्चा की गई है। सातवें व आठवें
अध्याय में बालकों की संवेगात्मक विचारधारा-भूमिका-नियंत्रण आदि पर और बालकों के
सामाजिक मूलभूत विचारों पर चर्चा की गई है। नौवें अध्याय में बालक की बुद्धि का
विकास किन-किन चरणों से होकर गुजरता है उसके कारकों पर प्रकाश डाला गया है। दसवें
अध्याय में बालक की क्रियाशीलता एवं सृजनात्मकता के विकास पर चर्चा की गयी है जो
उसे रचनात्मक बनाती है। ग्यारहवें और इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में बालक के
सौंदर्यबोध और उसको प्रभावित करने वाले कारकों पर तथ्यात्मक विवरण के साथ बड़ी
सुंदरता से चर्चा की गयी है जो इस पुस्तक को महत्त्वपूर्ण बनाती है।
कला
की दृष्टि से इस पुस्तक में सौंदर्य विकास एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें
पारिवारिक परिवेश में सौंदर्य की अभिव्यक्ति, सौंदर्यबोध के प्रभाव में विद्यालय
का प्रभाव, विद्यालय सौंदर्यपरक विकास के साधन, किशोरावस्था में सौंदर्यपरक विकास
की शिक्षा, कलाकृति प्रविधि, आत्मसिद्धि, सौंदर्यबोध शिक्षा जगत का ध्येय तथा
सौंदर्यबोध के अभिविज्ञान का विकास, एक सफल कलाकार के सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार
का मूल्यांकन, सौंदर्यपरक विकास को प्रभावित करने वाले कारक आदि उपशीर्षक एवं अन्य
सूचना-तथ्यों को उद्घाटित किया गया है, जिसमें शिशु और किशोर वयस्क होते-होते कैसे
सौंदर्यबोध विकसित करता है जो समय के साथ रचनात्मकता के दायरे में आने लगता है,
व्याख्यायित है। पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह समझने में सहायक है कि कैसे व्यक्ति
का मनोवैज्ञानिक पक्ष रचनात्मकता के दायरे में आने लगता है।
पुस्तक का नाम: बाल – विकास एवं शिक्षा संदर्शिका, लेखिका: डॉ ( श्रीमती ) प्रमिला श्रीवास्तव, प्रकाशक:- कनिष्क पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स 4697/5- 21ए, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली पिनकोड -110002, वर्ष:-2008, मूल्य:- 120
सैंतालिस से चौरासी तक
चित्रकारों की नज़र में
डॉ अवधेश मिश्र
सैंतालिस से चौरासी तक : चित्रकारों की नजर में लेखक - जगतारजीत सिंह की सद्य प्रकाशित पुस्तक आई है। इस
पुस्तक का मूल पंजाबी से हिंदी में अनुवाद डॉ जसविन्दर कौर बिंद्रा ने किया है।
स्पर्श प्रकाशन, पटना से प्रकाशित इस पुस्तक के 144 पृष्ठों में कुछ पृष्ठ रंगीन भी हैं, जो कला से सम्बंधित
इस पुस्तक को जीवन्त करते हैं। लेखक जगतारजीत सिंह पहले भी अनेक कला पत्रिकाओं के
साथ ही कला दीर्घा, अंतरराष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका में अनेक कलाकारों पर सार्थक लिखते
रहे हैं। वह कहते हैं कि सैंतालिस और चौरासी की दुखद
घटनाएं स्वतंत्र भारत में घटीं और दोनों घटनाओं में पीड़ित लोगों की मानसिकता को केवल
प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसे किसी हद तक परिवर्तित भी किया। सैंतालिस के हादसे की सेंक सभी पंजाबियों को भोगना
पड़ा। जबकि चौरासी की अग्नि ने केवल और केवल सिखों को झुलसाया।
आज़ादी
के संघर्ष का बयान करते हुए जगतार यह कहने से नहीं चूकते कि देश का बंटवारा मानवता
के खिलाफ नेताओं द्वारा किया गया षड्यंत्र था। एक बार अलग हुए अपने, तिनके की तरह
बिखर गए, जो कभी जुड़ नहीं सके। इस दर्द को अनेक कलाकारों ने अपनी अभिव्यक्ति में
जीवन्त किया है। हालाँकि बंटवारे से सम्बंधित चित्रों से पहचान जगतार जीत की कुल
एक दशक की होगी पर उन्हें इसके सन्दर्भ मिलते गए और वह उसके सहारे आगे बढ़ाते-तलाशते
गए। वह कहते कि बंटवारा तो बंगाल का भी हुआ था पर विषय विस्तार लेता जा रहा था
इसीलिये कहीं न कहीं अपनी एक सीमा तय करनी पड़ी और अपने लेखन को मैंने पंजाब पर
केन्द्रित किया। वैसे बंगाल का बंटवारा अनेक कलाकारों का चित्रण विषय रहा है।
वैसे
इस पुस्तक में शोभा सिंह. एस एल पराशर, धनराज भगत, अमरनाथ सहगल, प्राणनाथ मागो,
कृष्ण खन्ना, सतीश गुजराल. प्रेम सिंह, विवान सुंदरम, अर्पणा कौर, सुरजीत अकरे और सिंह ट्विन्स जैसे कलाकारों
पर सविस्तार लिखा गया है पर जगतार स्पष्ट करते हैं कि एक अवलोकन से ही स्पष्ट हो
जाता है कि सैंतालिस को चित्रित करने वाले कलाकारों की संख्या अधिक थी, जून और नवम्बर
चौरासी का दर्द प्रस्तुत करने वाले कलाकार केवल दो या तीन ही हैं। पहले दौर में
कोई स्त्री कलाकार नहीं मिलती जबकि दूसरे दौर में तीन महिला कलाकार नजर आती हैं-
जून की त्रासदी का चित्रण महिला कलाकारों ने ही किया, किसी पुरुष की कलाकृति दिखाई
नहीं देती। नवम्बर चौरासी की पीड़ा को भी एक महिला ने ही चित्रित किया।
यह
जगतार जीत की एक ऐसी शोधपरक सामग्री से युक्त पुस्तक है जिसे ध्यान दिया जाना
चाहिए और इन सन्दर्भों के सहारे एक बड़ा शोध सामने आना चाहिए। प्रश्न वाजिब है कि
जब बंटवारे की त्रासदी को साहित्य और रंगमंच में शामिल किया गया और प्रकारांतर से
भोगे गए क्षणों को सामने लाया गया तो क्या चित्रकार चुप थे? वे संवेदित नहीं हुए?
उन्होंने कुछ नहीं रचा? यदि रचा तो वह प्रलेखित क्यों नहीं हुआ? पुस्तक में शामिल
चीतों की विषय-वास्तु पर बात करते हुए जगतार कहते हैं कि यह अजीब स्थिति है कि इस
पुस्तक में शामिल सभी चित्रों में अत्यंत सताए हुए दुखी और पीड़ा भोगने वाले पात्रों
को ही चित्रित किया गया। तीन-चार जगह पर वह कुछ हरकत
करते दिखाई देते हैं। दिखाई देता है जनसमूह, संकट में हालात से बाहर निकलने का
प्रयास कर रहा है परंतु किसी भी कलाकृति में ऐसा अभिव्यक्त नहीं किया गया कि उसका पात्र
हिंसा को रोक रहा है या हिंसा का पलट कर जवाब दे रहा है। सभी कलाकारों का रवैया और
नजरिया लगभग एक समान दिखाई देता है। प्रेम सिंह, विवान सुन्दरम और अर्पणा कौर ने नवंबर
चौरासी की क्रूरता का चित्रण किया है। इस तरह कुछ कलाकारों ने हिंसा, क्रूरता और
लहूलुहान होने को अपने चित्रों में दर्शाया है जो कलाकारों के संवेदनशीलता का
प्रतीक है। इस पुस्तक के आगे अभी ऐसा बहुत कुछ है जो अगली पुस्तक में आना बाकी है।
तभी सैंतालिस से चौरासी और उसके बाद का वास्तविक प्रलेखन होगा।
पुस्तक : सैंतालिस से चौरासी तक : चित्रकारों की नज़र में, लेखक : जगतारजीत सिंह, पंजाबी से हिंदी अनुवाद : डॉ जसविन्दर कौर बिन्द्रा, प्रकाशक : स्पर्श प्रकाशन, बोरिंग रोड, पटना. मूल्य : 495/-
देवी प्रसाद कृत ‘शिक्षा का वाहन : कला’
बाल और किशोरवय-रचनात्मकता के
कुछ ध्यातव्य पहलुओं पर सम्वाद
प्रशांत चौधरी
राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘शिक्षा का वाहन’ कला-शिक्षाविद देवी प्रसाद द्वारा लिखी गई है,
जिसका पहला संस्करण 1999 और 11वीं
आवृत्ति 2023 में प्रकाशित है। देवी प्रसाद ने रवीन्द्र नाथ टैगोर
के स्कूल शांतिनिकेतन से स्नातक की उपाधि ली थी और इन्होंने विश्वभारती सहित अनेक
विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया। इनकी अंग्रेजी में प्रकाशित कई पुस्तकों में
ग्रामदान : द लैंड रिवोल्यूशन ऑफ़ इंडिया, द लव इट बट लीव इट-अमेरिकन
डेजर्ट्स : पीस एजुकेशन और एजूकेशन फॉर पीस और उनके हिंदी में प्रकाशित महत्वपूर्ण
प्रकाशन हैं – ‘रवींद्रनाथ टैगोर - शिक्षा और चित्रकला’ तथा ‘बच्चों की कला’ और ‘शिक्षा
का वाहन कला’। ‘बच्चों की कला’ और ‘शिक्षा का वाहन कला’ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, जिन्हें
बच्चों और वे जो बचपन छोड़ चुके हैं, दोनों को पढ़नी चाहिए। प्रथम दृष्टया इस
पुस्तक में जो भी सामग्री दिखती है उसमें पहला और महत्त्वपूर्ण अध्याय दिखता है कला
शिक्षा क्यों? इस अध्याय को व्याख्यायित करते हुए
- भौतिक जीवन का सौंदर्य, प्रकृति-परिचय : बंधुत्व, सचेतता, आँख की शिक्षा, लावण्य-निर्माण,
अध्याय दो के अंतर्गत विवेचित- ‘बच्चों की नजर से’ और तीसरे अध्याय में ‘बच्चों के
चित्रों का विकास-क्रम’ में अनेक विषय से संबंधित आयामों पर कलाविद देवी प्रसाद ने
दृष्टि डाली है। चौथे अध्याय- किशोर-अवस्था, पांचवें अध्याय - किशोरावस्था में कला
शिक्षा, छठे अध्याय - शिक्षक और शिक्षा का वातावरण, सातवें अध्याय - शिक्षा पद्धति
जिसमें प्रारम्भ कब करें? साधनों का प्रश्न मार्गदर्शन, आकार भेद और रंगभेद का बोध,
रंगों के नाम और सादृश्य, चित्रों के विषय, समालोचना, पर्सपेक्टिव का कार्य आदि
विषयों पर प्रकाश डालते हुए कला रचना की शुरुआत करने हेतु एक अच्छी समझ बनाने का परिचय
दिया है। लेखक ने आठवें अध्याय में कला परिचय और नवें अध्याय में ‘कुछ सवाल और
उनके जबाब’ के माध्यम से नवोदित कलाकारों को मानसिक रूप से कला के प्रति समर्पित
होने के लिए तैयार किया है। इस पुस्तक में
देवी प्रसाद ने वह सब कुछ समाहित करने का प्रयास किया है जो प्रायः हम सब से छूट
जाते हैं।
इस
पुस्तक के प्राक्कथन में हम देखते हैं कि देश के पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन जो
हिंदुस्तानी तालीमी संघ के अध्यक्ष थे, बाद में वह बिहार के गवर्नर भी रहे, लिखा
है - “इस किताब में जिस कला का जिक्र है, वह क्लास में हर दूसरे-तीसरे दिन आध घंटा,
पौन घंटा पढ़ाने-सिखाने वाली चीज नहीं है, जीवन की साधना है। इस किताब का लेखक
गुरुदेव के जगत में भी रहा है और बापू के जगत में भी। यह कला में जीवन डालने और
सारे जीवन को कला बनाने का हौसला रखता है। जाकिर हुसैन आगे लिखते हैं- “बुनियादी
पाठशालाओं और पुरानी चाल की पाठशालाओं, दोनों ही के शिक्षकों को इसके पढ़ने से
अपने काम के सुधार में सहारा मिलेगा। नए रास्ते सुझायी देंगे। ललित कला और उपयोगी
कला, उच्च स्थान वाली और नीच स्थान वाली कलाओं का धुंधलका कट जाएगा। कला और जीवन
का सम्बन्ध जुड़ता दिखाई देने लगेगा। यह किताब उन्हें याद दिलाएगी कि कलाकार और कला
शिक्षक तो योगी होता है और उन्हें सोचना होगा कि आज वह योग-साधना छोड़कर और सब कुछ
क्यों करते हैं। इस किताब से वह बालक को समझेंगे, किशोर अवस्था की कठिनाइयों को
जानेंगे। दोनों के भेद को पहचानेंगे। समाज की समस्याओं को समझने का रास्ता खुलेगा।”
कला शिक्षा क्यों? पुस्तक के पहले अध्याय में देवी प्रसाद लिखते हैं कि सौंदर्य शरीर को पसंद होता है। यदि उसकी शिक्षा में कला को जोड़ दिया जाए तो सौंदर्य अनुभूति विकसित होने की प्रक्रिया वहीं से शुरू हो जाती है और बच्चा जिज्ञासु होता है और वह दुनिया की रीति और रंग-रूप जान रहा होता है। ऐसे में उसकी पाठ्य पुस्तक, उसका परिवेश यदि सुंदर हो, आकर्षक हो तो वे छवियाँ बालक में शुरुआत से ही बन जाती हैं। दैनिक उपयोग के उत्पादों को सुन्दर बनाया जाता है और इस काम के लिए कलाकारों को स्थान दिया जाता है। देवी प्रसाद पृष्ठ संख्या 6 में लिखते हैं जो चीजें आदमी बनाए वह खूबसूरत हो इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता समाज के हर व्यक्ति को सुंदर वस्तु चुनने की विवेक-बुद्धि हो। पुराने जमाने में यह बात आसान थी क्योंकि परम्परा के कारण व्यक्ति चुनना जानता था और समाज की शिक्षण पद्धति में यह शिक्षा आ जाती थी। साथ ही एक कारण यह भी था कि जो वस्तुएं उपलब्ध थीं, उसमें से अधिकतर स्थानिक होती थीं। हर व्यक्ति हर कारीगर को अच्छी तरह जानता था। कला, कलाकार और ग्राहक की आत्मीयता के कारण कला-बोध की शिक्षा स्वाभाविक ही मिलती रहती थी। इसी तरह प्रकृति परिचय, बंधुत्व, सचेतता, आँख की शिक्षा, लावण्य-निर्माण आदि उप शीर्षक के अंतर्गत अध्याय में विविध पहलुओं पर विधिवत चर्चा की गई है। इसी अध्याय में लेखक कहता है कि जो प्रकृति से लेकर आता है उसके द्वारा तो लावण्य-निर्माण करने की शक्ति रखता ही है पर संस्कारों के द्वारा, शिक्षा के द्वारा जानबूझकर एक संपूर्ण लावण्यशील व्यक्ति बनने की शक्ति भी रखता है। ...इस तरह की बुनियाद, जैसा कि प्लेटो ने कहा है, बचपन से ही डालनी चाहिए क्योंकि अनेक ऐसी बातें होती हैं जो एक खास उम्र में ही करनी ठीक होती हैं। नृत्यकार का शरीर तभी सुंदर और छंदमय बन सकता है जब कि उसे बचपन से ही उसकी शिक्षा मिली हो। बड़े होकर शरीर को बदलना मुश्किल होता है। बचपन में अगर शरीर की ठीक ढलाई हो तो बड़ी उम्र में वह ठीक रहता है। जो गला छुटपन में सध जाता है उसमें स्वर सदा के लिए समा जाता है। संगीतज्ञ के गले का लावण्य कम उम्र से ही निर्मित होना शुरू हो जाता है। कला बोध जिस गहराई में बचपन से ही अभ्यास होने से प्रवेश करता है वह बड़े होकर करना विरलों के लिए ही संभव होता है।
यह
पुस्तक सभी आयुवर्ग और रुचिसंपन्न लोगों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है क्योंकि यह
एक अछूते विषय यानी बाल कला और कलाकारों की रचनात्मकता और सौंदर्यबोध पर संवाद
करती है, जिस पर वास्तव में सबसे कम लिखा गया है।
पुस्तक
: शिक्षा का वाहन : कला, लेखक : देवी प्रसाद, प्रकाशक : राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास, भारत, नेहरु भवन, 5 इंस्टीट्युशनल एरिया फेस
2, बसंत कुञ्ज, नयी दिल्ली - 110070





























.jpg)










































अत्यंत गहन अध्ययन एवं वृ हद जानकारी
ReplyDeleteBeautiful compilation!
ReplyDeleteVery well concievex and documented..Let me take more time to comment..its very rich in content and context. Congratulations.
ReplyDeletePl make it concieved .
ReplyDeleteAshok Aatreya.
वाह, बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteअति सुन्दर ! मेरी व्यक्तिगत राय में आप इस सफल प्रयास में ज्यादातर दृष्टिकोण से अव्वल हुए ! अवधेश भाई आपको ढेरों बधाई! आप इसी प्रकार समाज को समृद्ध करते रहें! मंगल कामना ‼🌼
ReplyDeleteIt's An excellent example of beautiful writing and knowledge.
ReplyDeleteAap ka kala ke prati samarpan evam samaj ke sabhi vargon ke bare mein gahan jankari rakhane ke liye hardik badhai.
ReplyDeleteबढ़िया संकलन, एक नियमित कला पत्रिका भी निकलनी चाहिए
ReplyDeleteBhout sundar 💐🙏🏻
ReplyDeleteअद्भुत,अनूठा ज्ञान -विज्ञान,कला -साहित्य का बहुधर्मी, बहुरंगी मौलिक संकलन किसी भी चैतन्य चित्त को आकर्षित करने में और पढ़ने के लिए प्रेरित करने मे सामर्थ्यशील है।यह संग्रहणीय अंक है। बधाई बधाई बधाई एवं शुभकामना। डा जयशंकर लखनऊ शेरपुर
ReplyDelete