Views of Critics
चित्रकार अवधेश मिश्र का बिजूका संसार
प्रतिष्ठित चित्रकार अवधेश मिश्र की बिजूका चित्र श्रृंखला उनकी चित्रकृतियों ( पेंटिंग्स ) का वह बहुआयामी रचना संसार है, जिसमें गहरे समकालीनता बोध के साथ लोक और आधुनिकता की पारस्परिक विसंगतियाँ उभर कर हमारे सामने आती हैं। इन चित्रकृतियों में कलाकार की अंतर्दृष्टि की झलक रंगों और आकृतियों के संयोजन-समायोजन में मिलती है। अवधेश मिश्र का चित्रकार तटस्थ द्रष्टा न होकर विषय की अंतर्वस्तु में अपनी स्पष्ट भूमिका प्रस्तुत करता है और इस तरह वह कई जगह व्यंग्यात्मक तथा आलोचनात्मक मुद्रा में सामने आता है, लेकिन स्थूल रूप में नहीं बल्कि पूरी संजीदगी और सूक्ष्मता के साथ। अवधेश मिश्र की चित्रकृतियाँ दर्शक को चौंकाती नहीं, बल्कि विस्मय में डाल देती हैं। उनकी बिजूका चित्र श्रृंखला की प्रदर्शनियां देश की विभिन्न प्रतिष्ठित आर्ट गैलरियों में लग चुकी हैं और कला पारखी दर्शकों द्वारा खूब सराही गई हैं। इन चित्रकृतियों में रंगों के प्रयोग और आकृतियों की रचना में चित्रकार अवधेश मिश्र का अपना खास मुहावरा दिखाई देता है। यही वजह है कि बिजूका श्रृंखला उनका सिग्नेचर बन चुकी है।
जैसा कि हम जानते हैं कि हरे-भरे खेतों के विस्तार में बिजूके पशु-पक्षियों से फसलों की रखवाली के लिए पुतले के रूप में खड़े किए जाते हैं, जो पहरेदारी का धोखादेह तरीका है। हरे-भरे, फूलते-फलते खेतों का रंग फसल के तैयार होने तक बदलता रहता है और देखने पर लगता है कि गोया रंगों के समुद्र में लहरें उठ रही हैं। इस विस्तृत दृश्य के बीच खड़े एकाकी बिजूके भला किसका ध्यान नहीं खींचते! उनको पहनाए कपड़े हवा में हिलते हैं तो कभी वे चमकती धूप में तपस्वी की तरह एक ही मुद्रा में निश्चल खड़े नजर आते हैं। अवधेश मिश्र की चित्रकृतियों में भी होड़ लगाते रंगों की लहरें उठती दिखाई देती हैं और कई बार लगता है कि उनमें कोई बिजूका तैर रहा है, कोई डुबकी लगा रहा है तो कोई डूब भी रहा है। लेकिन ये चित्रकृतियां इकहरे ढंग का प्रकृति चित्रण बिल्कुल नहीं हैं। इनमें जिंदगी की उबड़-खाबड़, खुरदुरी जमीन भी है, केवल लोकजीवन ही नहीं हमारा शहरी जीवन भी है, दिलफरेब धोखेबाज बिजूके भी हैं जिनसे आए दिन हमारा साबका पड़ता है। यहाँ तक कि लोकतंत्र की पहरेदारी में तैनात बिजूके भी अवधेश मिश्र की कूची से बरी नहीं रह पाए हैं। चित्रकार अवधेश मिश्र का बिजूका संसार अनेक रंग-रूपों में हमारे सामने उपस्थित होता है। इसकी बहुआयामिता हमें सृजन के सम्मोहक संसार में बरबस खींच लेती है। इन चित्रकृतियों को देखना इनके कला संवेग से जुड़ना और खुद को समृद्ध करना है।
अरविंद चतुर्वेद, वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ, 20 फ़रवरी 2022
अवधेश मिश्र की कला
विजूका के बहाने चित्रों में गँवई संस्कृति का ताना–बाना
ऐसे कम ही कलाकार दिखते हैं जो समानान्तर रूप से क्रियात्मक और सैद्धांतिक दोनों पक्षों को साधते हुए कलाजगत में अपने उल्लेखनीय प्रयोग और सक्रिय योगदान से सतत अपनी जगह बनाये हुए हों. और यह भी कि उनकी कला का सीधा सरोकार उस परिवेश और जन-जीवन से हो, जहाँ उनके बचपन से लेकर किशोर वय तक की विभिन्न संवेदनाएं और अनुभूतियाँ उनकी रचनात्मक दुनिया का ताना-बाना बुनती हों. हाँ, मैं वरिष्ठ कलाकार अवधेश मिश्र की बात कर रहा हूँ, जिनके कला जगत में पदार्पण, बीते तीन दशक के उतार-चढ़ाव, रचनात्मकता की विभिन्न विधाओं - चित्रण, रेखांकन, लेखन और संपादन में समानान्तर गति और विकास का मैं साक्षी रहा हूँ. मैंने देखा है कि हर परिस्थिति में अवधेश ने कैसे संतुलन के साथ अपना रास्ता प्रशस्त किया है और आज इस मुकाम पर हैं, जहाँ से भारतीय समकालीन कला के सम्पूर्ण परिदृश्य को स्पष्टतः देख पा रहे हैं और कला जगत भी उनकी यात्रा-सातत्य को देख रहा है. रचनात्मकता के विविध अनुशासनों में सामानांतर रूप से नियमित रचनारत, अवधेश मिश्र द्वारा रची गयी विभिन्न चित्र श्रृंखलाएं, विभिन्न पत्रिकाएं एवं पुस्तकें कलाजगत के लिए आज महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ के रूप में देखी जाती है, जिनका स्वाद ‘इनके सांस्कृतिक परिवेश की चासनी’ में सानकर बढाया जा सकता है.
एक मई 2021 को अवधेश अपने जीवन का इक्यावन वर्ष पूरा कर बावनवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं. किसी रचनाकार के लिए जीवन का यह महत्वपूर्ण अवसर होता है. अवधेश की नितनवोन्मेषपूर्ण कला यात्रा के तीन दशक पूरे हो चुके हैं. उनकी कला यात्रा मुझसे तीन साल पहले लखनऊ में शुरू हुयी थी, पर मैं उनको तब से विधिवत रूप से जानता हूँ जब हम दोनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के दृश्यकला संकाय के छात्र थे और ‘रीवा कोठी’ छात्रावास में रहते थे. संयोगवश अध्ययनोपरांत लखनऊ भी दोनों का साथ ही आना हुआ और तब से हम एक दूसरे से हमेशा उतनी ही आत्मीयता से जुड़े रहे.
स्मृतियों में जाता हूँ तो हॉस्टल में अवधेश का और मेरा कमरा आसपास ही था. हम दोनों अक्सर घाट पर टहलना-घूमना, संगीत सुनना, स्केचिंग और अन्य रचनाकर्म साथ-साथ ही करते थे. स्वभाव से संवेदनशील, स्वाभिमानी, मृदुभाषी, सम्बन्ध-निर्वहन में बेजोड़ और सामाजिक सरोकारों से संपन्न होते हुए भी वह छात्रावास और संकाय में विद्यार्थियों से कम मिलते-जुलते थे, उनका ज्यादा समय शिक्षकों के साथ ही बीतता था. कभी-कभी वह, उन शिक्षकों के घर या स्टूडियो चले जाते थे, कला कर्म जिनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा होता था, तब अवधेश हॉस्टल काफी देर से आते थे. रोजाना के लिए अपने तय किये हुए कामों में व्यस्त रहना, उनकी दिनचर्या थी.
अवधेश अपने छात्र जीवन से ही बहुत सजग रहे हैं. उन्हें क्या, कब और कैसे करना है, इसकी विधिवत योजना और तैयारी उनके पास पहले से ही रहती थी. यह आदत उनमें आज भी है. स्वभाव से वह जितने सरल हैं, अपने लक्ष्य के प्रति उससे बहुत अधिक गंभीर. मैं उनको जितना समझ सका हूँ, यदि वह किसी कार्य को पूरा करने के लिए ठान लें, तो हर कीमत पर उसे पूरा करते हैं. उसके लिए चाहे जितना प्रयत्न और श्रम करना पड़े. अवधेश किसी काम को संपन्न करने के लिए जो पुरुषार्थ करते हैं, उसका जितना हिस्सा लोगों को दिखाई देता है, असल में वह उससे कई गुना ज्यादा कर चुके होते हैं, जो लोगों को पता नहीं चलता. उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात तो यह है, कि वह नैतिक, सामाजिक, अकादमिक और सांस्कृतिक दायित्वों को बखूबी निभाते हुए व्यक्तिगत जीवन को बहुत संतुलित ढंग से जीते हैं. इसका श्रेय उनके समय-प्रबंधन और आत्मानुशासन को है.
अवधेश के व्यक्तित्व की बात करते समय यह उल्लेख करना आवश्यक है, कि किसी भी सभा-समारोह अथवा जन-समूह में उनकी उपस्थिति एक आकर्षण का विषय बन जाती है. ऐसा नहीं होता, कि उनकी उपस्थिति की चर्चा न हो. उनकी पहचान – उनकी सहज, निराली और पूर्णकालिक रचनात्मक जीवन शैली है, जहाँ नकारात्मकता के लिए कोई स्थान नहीं रहता. यह प्रभाव उनकी हर रचना में स्पष्ट दिखता है, चाहे उनके चित्र और रेखांकन हों या उनका लेख अथवा उनका जीने का अंदाज, सब बेहद स्पष्ट, सरल और चमकदार है, जिसकी छाप उनके पहनावे और हाव-भाव में भी दिखती है. यह सच है, अवधेश अत्यंत रचनात्मक, परिश्रमी, सहनशील, सहृदय और प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, जिनके व्यक्तित्व के विविध आयामों के बारे में संक्षेप में कह पाना सरल नहीं है, इसीलिये वह मेरे लिए ही नहीं, सांस्कृतिक और शिक्षा-जगत में भी सम्मान से देखे जाते हैं.
किसी कलाकार के ओजस्वी व्यक्तित्व की बात करते हुए उसकी रचनात्मकता की बात न की जाय तो ठीक वैसे ही होगा जैसे शरीर की बात करते समय आत्मा को छोड़ दिया जाय. इसलिए अवधेश मिश्र के जीवन के उस पक्ष पर अवश्य बात होनी चाहिए जिस कारण वह आज अपने समकालीनों से अलग पहचान रखते हैं. वैसे तो अवधेश बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्ति हैं, लेकिन चित्रकला उनकी मूल प्रतिभा है, यदि इसकी बात नहीं की जाए तो उनके जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा छूट जाएगा, जबकि कुछ लोग ‘आधे चाँद’ को देखने जैसे, उनके संपादक, कला-समीक्षक, लेखक और क्यूरेटर की भूमिका की ही अधिक चर्चा करते हैं. देखें तो अवधेश ने सबसे पहले चित्र बनाना शुरू किया, लिखना और समीक्षा करना उसके बाद में. यह जरूर है कि लेखन भी उनकी सुरुचिपूर्ण कला है. उनका रंग और आकारों से नाता तो अक्षर-ज्ञान से पहले ही जुड़ गया था, जब वह मिट्टी से बनी घर की दीवारों या ज़मीन पर कोयले, खड़िया या गेरू से पेड़-पौधे, जानवर, चिड़ियाएँ, परिवेश और खेती-बाड़ी की विभिन्न गतिविधियों को उकेरने लगे थे. गांव-घर के बड़े बुजुर्गों और अध्यापकों द्वारा दिए गए प्रोत्साहन ने उनका आत्मबल और कला के प्रति अगाध प्रेम को स्थायी बना दिया. समय के साथ-साथ चित्रकला के प्रति उनकी रुचि, रचनात्मकता और सक्रियता बढ़ती गई, परिणामस्वरूप एक दिन उनका एडमिशन कॉलेज ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट, लखनऊ में हो गया, जहाँ उन्होंने द्विवर्षीय आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग (1989-1991) पाठ्यक्रम पूरा किया और यहीं से उनके कलाकार का वास्तविक विकास होने लगा. यहीं कलागुरू नित्यानंद महापात्र का सान्निध्य प्राप्त हुआ, जिनका अवधेश के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा. महापात्र के सान्निध्य और मार्गदर्शन से उनकी राह प्रशस्त होने लगी और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में बीएफए (1991-1995) पाठ्यक्रम में प्रवेश के साथ ही उनकी कला यात्रा का एक नया अध्याय शुरू हो गया. बनारस में भी रघुवीर सेन धीर और दिलीप दासगुप्ता सहित अन्य कलागुरुओं से मिले सान्निध्य के कारण कला की अनेक शैलियों और बारीकियों से अवधेश भली भांति परिचित होते गए और उनके काम सहपाठियों से अलग व परिपक्व दिखने लगे. अध्ययनकाल में ही अपने व्यक्तित्व के कारण अवधेश शिक्षकों की दृष्टि में विशेष छात्र के रूप में थे या कहें तो मित्रवत थे और रचनात्मक गतिविधियों के साथ ही शिक्षक उनसे प्रशानिक कार्यों में भी सहयोग लेते थे. ऐसा अवसर बहुत कम विद्यार्थियों को मिल पाता है. यही कारण था कि उनमें कला का तकनीकी और वैचारिक पक्ष सामानांतर रूप से विकसित होता गया. वह जल रंग माध्यम में वाश चित्रण, स्थिर चित्रण, दृश्य चित्रण और प्रकृति चित्रण बहुत ही दक्षता से करते थे. उन्होंने चित्रण में शीघ्र ही तैल माध्यम का प्रयोग प्रारंभ किया और धीरे-धीरे यह उनका प्रिय माध्यम हो गया. अवधेश ने इस माध्यम में बहुत कार्य किया. क्लास वर्क के अलावा भी वह अधिकांश समय में हॉस्टल के अपने कमरे में चित्र बनाते रहते थे और बीएफए के अंतिम वर्ष तक ही अपनी कला को गुरुओं के प्रभाव से मुक्त कर लिया था. वह खोज करने लगे थे - नए आकारों और तकनीक की, जिससे रचना जकड़नों से मुक्त और नए विचारों से संपन्न हो. विषय और तकनीक, दोनों में उन्होंने अपने मन की सुनी और लखनऊ के ऐतिहासिक धरोहरों को नए-नए रूपों में रचना शुरू कर दिया. वृहदाकार कैनवास पर स्पेचुला से बरते गए तैल रंग के एक – एक चित्र में सम्पूर्ण लखनऊ और उसके वास्तु की खूबियाँ समाहित है. एमएफए (1995-1997) के डिस्प्ले में, लगभग मोनोक्रोम में बड़े ही परिपक्व तरीके से रची गयी ये इमारतें, अपनी प्राचीनता और भव्यता के सम्पूर्ण प्रभाव के साथ उपस्थित थीं.
बनारस में प्रशिक्षित होने वाले अधिकांश कलाकार जब अपने चित्रण विषय को बनारस की गलियों और घाटों तक ही सीमित रखते थे, तब अवधेश समकालीन कला की नवीन प्रवृत्तियों के साथ जुड़कर विभिन्न तकनीकों और माध्यमों में खेलते थे. उन्होंने गैर-परम्परागत माध्यमों में भी खूब प्रयोग किया, जैसे रोलर का प्रयोग, कैनवस पर आयल कलर लगाकर पानी के छींटे मारकर, सिरिंज से स्प्रे कर या नैपकिन से रंग उठाकर, नए – नए टेक्सचर और आकृति पैदा करने जैसे तमाम प्रयोग करते रहते थे. धीरे-धीरे वह अपने आप को आकारों के बंधन से अलग कर अमूर्तन की तरफ ले जाने लगे और यथार्थवादी चित्रण की राह छोड़ भाववादी चित्रण की दिशा में बढ़ गए. उनका मानना है कि ‘चित्र में भाव पक्ष गंभीर होना चाहिए जो आकारों के सरल होने से ही संभव होता है. सहज आकार भाव पर हावी नहीं होते.’
परास्नातक उपाधि प्राप्तकर अवधेश मिश्र को बनारस से लखनऊ वापस होना था. अब जीवन का नया अध्याय आरंभ हो रहा था, अपने आप को साबित और स्थापित करने का, जीवनयापन की मूलभूत जरूरतें पूरी करने का. इन सब के लिए एक आर्थिक आधार चाहिए था, जिसके लिए उन्होंने कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ सहित अनेक संभावनाओं की तलाश की, अंततः राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश में संविदा के आधार पर ‘प्रदर्शनी अधिकारी कम सहायक सचिव’ का दायित्व मिला, जहाँ उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों के साथ पूर्ण न्याय करते हुए अकादमी की विभिन्न योजनाओं, गतिविधियों और वर्षों से बंद पड़ी ‘कला त्रैमासिक’ पत्रिका सहित कई महत्वपूर्ण कलाकारों पर मोनोग्राफ लेखन और अन्य प्रकाशनों को शीघ्र ही पटरी पर ला दिया जिससे उनका प्रभाव न कि सिर्फ ललित कला अकादेमी में, बल्कि कला जगत में भी बढ़ने लगा, यही, 2001 में उनके त्यागपत्र देकर, अकादेमी छोड़ने का कारण बना. यह फैसला लेना आसान नहीं था, फिर भी उन्होंने ऐसा किया. अपने स्वाभिमान के साथ, एक बड़े आत्मबल और अदम्य इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए पुनः अवधेश ने अपना पथ प्रशस्त किया और नयी–नयी चुनौतियां स्वीकार की. कला रसिक अंजू सिन्हा (प्रकाशक) के साथ ‘कला दीर्घा’ अंतरराष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका का संपादन शुरू किया, जिसकी पहुँच प्रदेश से शुरू होकर शीघ्र ही पूरी दुनिया तक हो गयी. कला जगत से जुड़े सभी कलाकार, कलाप्रेमी और अध्येता प्रकारान्तर से लाभान्वित हुए और हो रहे हैं.
जिंदगी में जद्दोजहद कम हो सके और कला रचना सुचारू रूप से चलती रह सके, इसके लिए अवधेश मिश्र ने सरकारी इंटरमीडिएट कॉलेज में चौदह साल (2001-2014) कला शिक्षक की नौकरी करते हुए कला समीक्षा और संपादन के साथ चित्रण कार्य को प्राथमिकता दी और खूब काम किया. शीघ्र ही एक संपादक और कला समीक्षक के रूप में स्थापित नाम बन जाने के बावजूद अवधेश ने समानान्तर रूप से सन 2003 से लेकर 2011 तक की अवधि में अथक परिश्रम के साथ क्रमशः विस्थापन (रेखांकन), चाइल्डहुड मेमोरीज़, फ़ेस्टिव मूड और विजूका चित्र-श्रृंखलाएं रचकर विभिन्न महानगरों में प्रदर्शित किया, जिसका बड़ा ही सकारात्मक परिणाम सामने आया. देश और विदेश में उनके चित्रों के विषय, शैली, आकारों तथा रंगों के चयन के साथ ही ‘समय और सांस्कृतिक संवेदनाओं की उपस्थिति’ पर चर्चा होने लगी. वह एक ध्यातव्य कलाकार के रूप में पहचाने जाने लगे. उक्त अवधि में उन्होंने 12 एकल प्रदर्शनियां, तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों तथा कला शिविरों में भागीदारी निभाई. सात वर्षों से (2014) डॉ शकुन्तला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ में अध्यापन करते हुए समानान्तर रूप से उनके द्वारा ताजे और चटक रंगों (एक्रेलिक माध्यम) में रची गयी श्रंखला ‘लय’ और ‘विजूका रिटर्न्स’ कला जगत और कला प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय है.
अवधेश मिश्र की सर्वाधिक लोकप्रिय श्रंखला विजूका के पृष्ठभूमि की चर्चा की जाय तो वह मन और कर्म से भारतीय संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों को समर्पित कलाकार हैं । प्रत्येक स्तर और कालखंड की उनकी कलाकृतियाँ भारतीय संस्कृति के नए-नए आयाम खोलती नज़र आती हैं । कला क्षेत्र में पैनी होती दृष्टि ने अवधेश को रचने के लिए एक-एक करके अनेक विषय दिए – कभी उनका चित्रण विषय गँवई जन-जीवन रहा, तो कभी वहाँ का उल्लास से भर हुआ जीवन । कभी विद्यार्थी जीवन तो कभी बचपन की स्मृतियाँ । लेकिन सन दो हजार सात में उनकी कला में धीरे से विजूका का प्रवेश हुआ और एक लंबे समय तक वह अवधेश के चित्रण का विषय बना रहा । अवधेश बताते हैं कि “बचपन से ग्रामीण परिवेश को जिया है, विजूका सदैव ही मुझे डराता था, पर देखने और समझने की दृष्टि विकसित होने से मैं उसे और कई रूपों में देखने लगा । इसी तरह मेरे चित्रण का कैनवास विस्तृत होता चला गया।”
वास्तव में विजूका एक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है । वह संस्कृति जहाँ बच्चे के जन्म से विवाह तक लोक मंगल गीतों से उसका जीवन सींचा जाता है । संस्कारों से उसके जीवन की खुशियां बुनी जाती हैं । खेतों में बुवाई से लेकर बालियाँ पकने और फसल कटने तक अनेक सांगीतिक ताने-बाने से सराबोर त्योहार मनाए जाते हैं । स्वयं भूखे रहकर भी अतिथि का आतिथ्य किया जाता है । आज भी कोई रिश्तेदार पूरे गाँव का रिश्तेदार होता है और गाँव का बड़ा बूढ़ा किसी और परिवार के संबंध में भी सर्वमान्य जरूरी निर्णय ले लेता है ।
बिजूका की पृष्ठभूमि भारतवर्ष के एक बहुत बड़े भू-भाग की संस्कृति और परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती है और युगों से देश और समाज में हो रहे विकास का साक्षी है, बिजूका । बचपन में भूत – पिशाच की कहानियाँ सुने होने से अवधेश बिजूका से डरते थे । उस डर के कारण अवधेश के मानस पटल पर इस रूप ने एक जगह बना ली थी, जो उसकी नकारात्मकता और डर को व्यक्ति और व्यवस्था की नकारात्मकता से जोड़ कर देखने लगे । अवधेश ने कभी बिजूका को एक निरीह प्राणी के रूप में देखा, जिसको कोई भी क्षति पहुंचाई जाए वह विरोध नहीं कर सकता । कहीं वह धोखा लगता है कि जो वह नहीं है उस रूप में हम उसे देख रहे हैं, कहीं वह डरावना है जो खेतों में पशु पक्षियों को डराता है और समाज में निर्बलों को । अवधेश की चित्र श्रृंखला बिजूका के रूप रंग में भी बदलाव आया है और वह बहकटी नहीं पहने है, बल्कि टाई और कोट में नजर आता है, कहीं तो वह राइफल लिए हुए खड़ा रहता है । लेकिन उलटबांसी करते हुए चित्रकार ने कहीं उसे ऐसा भी बना दिया है कि उसके सिर पर कौवा बैठा है । यानी अपने वास्तविक मूल्यों और अर्थों को वह छोड़ चुका है । अब दुनिया आगे जा चुकी है, उसका किसी को कोई भय नहीं है, इसीलिए तो कहीं लकड़ी में लटके हुए कपड़े को जानवर खा जा रहा है । तंत्र, समाज और लोगों में पैर पसारती नकारात्मकता से संवेदित हो अवधेश अज्ञेय की ये पंक्तियाँ याद करते हैं - सांप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/ एक बात पूछूँ –(उत्तर दोगे?)/ तब कैसे सीखा डंसना—विष कहाँ पाया?
मोटे तौर पर इस श्रृंखला में जो बिजूका का चरित्र मुख्य रूप से ध्वनित होता है वह है उसका नकारात्मक चरित्र, यानी उजबक । अपने मूल स्वरूप, सांस्कृतिक मूल्य और संवेदनाओं से विमुख हो चुका व्यक्ति, समाज या तंत्र । इसीलिए इस श्रृंखला में कहीं तो न्यायाधीश और अधिवक्ता को एक ही छतरी के नीचे दिखाया गया है, यानी दोनों की अनुचित और स्वार्थपूर्ण सांठगांठ। कहीं एक बड़े कुर्ते में टोपी लगाये तीन सिर निकाले हुए बिजूका । यानि नेता परिवारों पर कटाक्ष, जो एक ही परिवार के सदस्य जनता को दिखने के लिए अलग अलग दलों से सम्बद्ध होते हैं पर वह अपने स्वार्थ के लिए एक ही होते हैं । सिस्टम के नियम कानून न मानने वाली जनता पर भी कटाक्ष करते हुए एक मोटरसाइकिल पर पाँच लोगों के साथ गधे पर सवार बिजूका को दिखाया गया है । इसी तरह बोल्ड स्टेटमेंट के साथ तैल माध्यम में रोलर के प्रयोग से रचे गए लगभग पचास चित्रों की यह शृंखला सन 2011 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, आजाद भवन, नई दिल्ली, जहांगीर आर्ट गॅलरी, मुंबई, गॅलरी आर्ट टुडे, पुणे और ठाणे कला भवन आर्ट गॅलरी, ठाणे में सफलतापूर्वक आयोजित की गई थी ।
अवधेश के काम पूर्णरूपेण मौलिक हैं और उनके साल दर साल के चित्रों को देखें तो उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता में जो विकास दिखता है, अद्भुत है. पूरी कला यात्रा में प्रकारांतर से बचपन में जिए गए ग्रामीण परिवेश की संवेदनाओं को समेटे विविध तत्व भी विस्तार पाते उपस्थित होते हैं. वहां कागज की नाव, कागज और पत्तों की फिरकी, शादी-विवाह-समारोह में प्रयोग की जाने वाली झंडियाँ, भारी बोझ तले दबता बचपन, लकड़ी की तख्ती, जिस पर बचपन में वह स्वयं लिखते थे, हिंदी वर्णमाला के अक्षर, हिंदी गिनती, जिन से बच्चे रोज रू-ब-रू होते थे, मिट्टी के चूल्हे, हल, विवाह के मंडप के सुग्गे, खेतों में खड़ा विजूका या इस प्रकार के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार साक्षात् भारतीय आम जन-जीवन में गहराई से झांकते दिखते हैं. निकट से देखें तो उनके चित्रों के रंग भी गांव से लिए गए हैं, जैसे मिट्टी का धूसर रंग, तो खुले आसमान का निर्मल नीला रंग, खेतों की हरियाली से लिया गया हरा रंग, तो फूलों से लिया गया लाल, पीला एवं नारंगी रंग और काली रात के चमकते तारों से ली गयी चमक और विषय को गहराई तथा वजन देता स्याह रंग. महसूस करेंगे तो इन चित्रों में गाँव की मिट्टी की सोंधी महक है, तो त्योहारों की रौनक भी है, उगते सूरज की लालिमा है, तो गांव की शांति और निश्छलता भी. अवधेश के इन चित्रों के सारे तत्व उनके द्वारा बचपन में जिए गए सरोकार हैं, जो उधार नहीं लिए गए हैं, और उनकी यही ख़ूबी उन्हें समकालीनों से अलग कर, विशिष्ट बनाती है.
चर्चा आवश्यक है कि आज अवधेश के आकारों का सहज और रंग व्यवहार का सपाट होना अचानक नहीं हुआ है. वह आकारों के उलझाव से निराकार की सहजता की ओर धीरे-धीरे आये हैं. भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रख्यात कलाकारों- बड़े गुलाम अली खां, ओंकारनाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, जसराज, रविशंकर, निर्मला देवी, लक्ष्मी शंकर, बेग़म अख्तर, गुदई महाराज, शिवकुमार शर्मा, अमजद अली खान, कुमार गन्धर्व, हरिप्रसाद चौरसिया, राम नारायण, एन राजम आदि को सुनते हुए कूर्बे के सामान्य जन-जीवन पर बने यथार्थ चित्रों, देगा के डांसिंग फीगर, रेअनॉय के बाथ सीन की अनुकृतियां, उमर खैय्याम की रूबाइयों पर यथार्थ चित्रण और रीवा कोठी छात्रावास में संगीत के विद्यार्थियों का विभिन्न माध्यमों में पोर्ट्रेट बनाना, ऑयल कलर में बड़े-बड़े आकार का रचनात्मक दृश्यचित्र और संयोजन बनाना, बनारस के विभिन्न रुचिकर स्थलों का जल रंग में दृश्य बनाना अवधेश के लिए विद्यार्थी जीवन की अनिवार्य दिनचर्या थी. लखनऊ के हज़रतगंज क्षेत्र में स्थित इण्टरमीडियट कॉलेज के विद्यार्थी और शिक्षकगण साक्षी हैं कि जेठ-बैशाख की दुपहरी में सीधी आती धूप से बेखबर अवधेश मिश्र विद्यालय की इमारत में पहली मंजिल पर बने अपने स्टूडियो में पसीने से भीगे हुए कितनी तल्लीनता से अपनी रचना में व्यस्त रहते थे. इसी अथक श्रम और सतत अभ्यास से उन्होंने कला में अपना मुहाबरा गढ़ा है. आज उनके स्ट्रोक्स, पैलेट और फॉर्म अपनी अलग पहचान रखते हैं.
उसी तरह जैसे तीन दशक पहले थे, अवधेश को आज भी वैसा ही पाता हूँ. वह इस बात से बेपरवाह, कि उनके चित्रों और लेखन का कब और क्या मूल्यांकन होगा, निरंतर अपने चित्रण के जरिये भारतीय सांस्कृतिक संवेदनाओं के विविध बिम्बों और मूल्यों को अभिव्यक्त करने तथा लेखन और संपादन के माध्यम से भारतीय समकालीन कला परिदृश्य के प्रलेखन में व्यस्त हैं और उनकी रचनाधर्मिता का यह दोनों पक्ष समाज को प्रकारान्तर से लाभान्वित और समृद्ध करता रहेगा.
उमेन्द्र प्रताप सिंह, स्वतंत्र कलाकार, लखनऊ, 2021
अवधेश मिश्र की कला–चेतना
विगत दो दशकों में अवधेश मिश्र समकालीन कला परिदृश्य में एक जरूरी और उल्लेखनीय कलाकार के रूप में बहुत तेजी से उभरे हैं । ऐसा बहुत कम होता है कि एक क्रियेटिव कलाकार जिस रफ्तार से पेंटिंग और ड्राइंग बना रहा हो, उसी गति से लेखन में भी वह सक्रिय हो। अवधेश का एक संपादक-रूप भी है । वे राष्ट्रीय ख्याति की पत्रिका ‘कला दीर्घा’ के संपादक हैं । ‘मनुष्य’ उनका प्रिय विषय रहा है इसलिए उनके अधिकांश काम में मानवाकृतियां (मूर्त / अमूर्त रूप में ही सही) तथा मानवीय संवेदनाएं प्रमुखता से परिलक्षित होती हैं । उनके पूरे कलाकर्म को यदि सिलसिलेवार देखा जाए तो उसमें लोक बिंबों के इस्तेमाल की बहुलता स्पष्ट दृष्टिगोचर होगी । कला मीमांसा के समय भी वे तकनीक से ज्यादा उस माध्यम की विषय वस्तु की पड़ताल बखूबी करते हैं ।
अवधेश अपनी कलाकारिता में कई बार अपने ही बनाए फ्रेम को तोड़ते नजर आते हैं । ऐसा करते समय वह निर्मम कतई नहीं होते, बल्कि विषय-वस्तु की माँग के अनुरूप अधिक से अधिक सहज संप्रेषण की सुविधा का रास्ता तलाश करते हैं । अपनी उम्र से ज्यादा बड़ा है उनका कद | वैसे जिस तरह की अपनी पहचान उन्होंने बनाई है, हो सकता है कि आगे चलकर वह किसी दूसरी सूरत में बदल जाए , क्योंकि गम्भीर रचनात्मक दृष्टि के साथ-साथ कला की तकनीकी समझ तो उनमें है ही । पेशे से अध्यापक होने के बावजूद वे एक पूर्णकालिक कलाकार हैं । अवधेश की पेंटिंग्स और ड्राइंग्स में लगातार एक विकसित होता हुआ प्रगतिशील विचार और उनका व्यापक सरोकार दिखता है ।
अवधेश की रेखाओं में तकनीकी ज्ञान के साथ-साथ जो अनुभूत सत्य का संगुंफन दिखता है, उसे पूर्णता प्रदान करने के लिए वे एक बिंदु का इस्तेमाल करते हैं, जिसे अलग-अलग विचारधारा के लोग अपनी -अपनी तरह से लेते हैं । मेरा मानना है कि यह बिंदु एक जरूरी नुक्ता है, जो आम आदमी को अपने उद्देश्य की प्रतिपूर्ति में सहायक होने की सूचना देता है । उसकी आशाओं और आकांक्षाओं के केंद्र-कक्ष में यह बिन्दु मानवीय पर्यावरण के क्षरण-काल में ओषजन का कार्य करता है ।
आज अवधेश मिश्र कला क्षेत्र का एक ऐसा जरूरी नाम बनता गया है जिसे कला संपादक, कला समीक्षक एवं कला इतिहासकार और एक सृजनात्मक कलाकार के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित होने का गौरव प्राप्त है | अवधेश मिश्र न तो किसी कला राजनीति में शामिल हैं और न ही उनके पास जोड़-तोड़ के लिए ही वक्त है | मैंने अवधेश मिश्र की कई कला प्रदर्शनियों का अवलोकन किया है | उनके चित्रों में जितनी सरलता है, उतनी गूढ़ता भी है। उनकी विषय वस्तु कुछ भी हो सकती है लेकिन मानवीय संवेदना के क्षरण की पीड़ा उनकी प्रत्येक कलाकृति में बखूबी देखी जा सकती है। उनके आरेख भी अपनी व्यथा-कथा कहते आपस में रेखाओं का अनुधावन करते हैं। अवधेश मिश्र का जो खाँटीपन है वह उनके अपने समवाय की उपज है। वे दरअसल अपने ही पर्यावरण के सहयात्री हैं। उनका प्रभाव उनके रंगों, रेखाओं और शब्दों में दिखता है। चाहे आरेख हो, कलाकृति हो, कला समीक्षा हो या कला इतिहास का लेखन हो वह सभी जगह एक निष्णात सर्जक के रूप में अपनी अभिव्यक्ति को आकार देते नजर आते हैं। मैंने उनकी कला में मामूली से मामूली विषयों की अमूर्त छवियां एवं आहट भी महसूस की है। गुंजलकों में यदि आप सूक्ष्मता से गहन अवलोकन करें, तो पाएंगे कि धरती और धरती पर रहने वाले हर जीव-जंतु, चर-अचर के प्रति उनका एक खास तरह का राग स्नेह है, जो उनकी रचना दृष्टि को व्यापक अर्थवत्ता प्रदान करता है। वह एक बार में समझ में आने वाले कला-पुरुष नहीं हैं। उन्हें बार-बार देखकर, पढ़ कर ही समझा और जाना जा सकता है। इतनी अल्प वय में जिस तरह से उन्होंने ऊँचाइयाँ छुयी हैं, वह उनकी सृजनात्मक समझ और अध्ययनशीलता से ही संभव हुआ है। सतत उपस्थिति के लिए निरंतर होना पड़ता है और यह अविरलता अवधेश मिश्र में है।
विजय राय, प्रधान संपादक – लमही, लखनऊ 24 अगस्त 2020
लोक जीवन में बिजूका और अवधेश मिश्र की कलाकृतियाँ
खेलते-कूदते या कहीं आने-जाने के क्रम में बच्चा हमेशा चिंतित रहता, भयभीत और सहमा-सहमा रहता, सोने के बाद जब वह स्वप्न देखता तो अचानक जाग जाता, अँजोरिया रात में कोई साया उसे दीखती तो वह सहमने लगता, बच्चों के साथ जब वह पढ़ने बैठता तो उसे लगता कि धीरे से उसके माथे को किसी ने सहला दिया। जब वह अपनी आँखें बंद करके अपने मन-मस्तिष्क में देखता, तो कुछ अलग-अलग छवियाँ दृष्टिगत होती थी। यूँ कहें तो वह बच्चा किसी छवि को देख-देख कर परेशान था। जब कभी वह अन्य बच्चों से इस संदर्भ में कहता तो सारे बच्चे उससे ठिठोली करते, मजाक करते….कोई नहीं समझता। वह बच्चा पुनः आँखें बंद करता और सोचने लगता।
दरअसल खेलने के क्रम में वह बच्चा किसी विद्रूप चेहरे को देख लिया था, जो काफी डरावना एवं भयावह था। वह चेहरा काले रंग के मटके जैसा था, उसकी आँखें, नाक और मुँह उजले रंग के थे। भयावह दिखने वाला वह चेहरा, बिजूका का था । बिजूका ने बच्चे को डरा दिया था । वह बच्चा धीरे-धीरे संवेदित होते गया। एक लंबे समय-अंतराल के पश्चात जब वह अपनी बातों-विचारों को रंगों-रेखाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करने लगा तो आहिस्ता- आहिस्ता स्वतः स्फूर्त तरीके से बिजूका की मुखाकृतियाँ सृजित होने लगीं। एक के बाद दो.... तीन... चार... पाँच ... पूरी चित्र श्रृंखला का सृजन उस बच्चे यानी अवथेश मिश्र ने किया, जिसकी चर्चा खूब हो रही है। बिजूका श्रृंखला की व्याख्या/ विश्लेषण लोग अपनी- अपनी दृष्टि से कर रहे हैं। कई लोग शोध कर रहे हैं ।
बिजूका..... गाँव में बिजूके का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके प्रति लोगों का अलग लगाव है। बिजूका को मुख्यरूप से सब्जी के खेत में गाड़ दिया जाता है, ताकि उस पुतले को आदमी समझकर पशु-पक्षी डर जाएं, उस खेत में नहीं आएं और फसल को नहीं खाएं। फसल की रक्षा हो सके। यह एक अलग सोच है जो काफी विचारणीय है । लोग उस पुतले के ऊपर ज्यादा विश्वास करते हैं। वे स्वयं खेत पर नहीं जाते तो भी उनका प्रतिनिधि वहाँ रह जाता है। हरे-भरे खेतों-फसलों की रखवाली में खड़ा वह पुतला गर्मी की दोपहरी की सन- सन करती लूक, सावन- भादों की झमझमाती बारिश, गरजते- चमकते बादल या अगहन-पूस महीने की कड़कड़ाती ठंड में भी तत्पर रहता है। अंधेरी रात में अगर हम और आप भी उस रास्ते से गुजरते हैं तो पुतले की छवि दृष्टिगत होती है। किसी व्यक्ति का होने का अहसास होता है। हमें भय लगता है। गाँव में बिजूके से संबंधित कई प्रकार की किंवदंतियाँ-कहानियाँ सुनने को मिल जाती हैं, जो काफी रोचक होती हैं । गाय, भैंस, बकरी आदि तो उस खेत के आरी तक भी नहीं पहुंचते। इसीलिए लोग गाँव में सुरक्षा की दृष्टिकोण से पुतले का निर्माण करके खेत में लगा देते हैं। बिजूका या पुतला बनाने का उनका आसान तरीका होता है। लगभग पांच फीट लंबे बांस के डंडे में ऊपर से थोड़ा नीचे बांस की एक छोटी फराठी को क्रास की तरह बांध देते हैं । उसके बाद बांस के ऊपरी भाग में मटका को लगा देते हैं । मटका अमूमन पुराना होता है । उसे कालिख या काला रंग से रंग देते हैं । उसके बाद उजले रंग से उसके ऊपर आदमी की आँख, नाक एवं मुंह बना देते हैं। वह मटका आदमी के चेहरे जैसा दीखने लगता है। मटके में काले और उजले रंग का प्रयोग इसलिए भी होता है कि ये रंग आसानी से सुलभ हो जाते हैं और दूसरी बात कि उजला रंग अंधेरे में भी दूर से ही दिखाई देता है । उसके बाद पुतले को पुराना-धुराना कुर्ता पहना देते हैं। तब वह किसी आदमी की शक्ल में दिखाई देने लगता है। मटके कई आकारों, यथा- थोड़ा बड़ा, थोड़ा छोटा या मझिले होते हैं। यूँ कहें तो जितने हाथ उतनी मुखाकृतियाँ । बिजूका का यही रूप, यही सौंदर्य , यही बनावट आदि ने अवधेश को प्रभावित किया । इसके साथ ही बिजूका से संबंधित कथा-कहानी, दर्शन-विचार आदि ने चित्र सृजित करने के लिए प्रोत्साहित किया ।
कोई भी वस्तु, आकृति या रूपाकार जब जन-जीवन से उठकर किसी कलाकार की अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं, तो स्थितियाँ बदल जाती हैं। उसके मायने बदल जाते हैं। वस्तु, वस्तु नहीं रह जाती। कोई भी वस्तु जिसका उपयोग जीवन या जीवन-यापन में हुआ हो या होता हो, उसका अपना सरोकार होता है, पूरा माहौल होता है, एक संस्कृति होती है। ज्योहिं, वह रचना-रूप में तब्दील होती है, तो प्रतीकात्मक रूप से उसके अर्थ बदल जाते हैं । अवधेश मिश्र द्वारा सृजित बिजूका चित्र श्रृंखला की कलाकृतियों को ही देख सकते हैं । बिजूका सीरीज की कृतियां राजनैतिक, धार्मिक स्थितियों, आडम्बरों पर प्रहार करती हैं। प्रतीकात्मक रूप से हम बिजूका अथवा किसी तंत्र, किसी व्यवस्था का निर्माण स्वयं करते हैं । हम इस उम्मीद में उसे बनाते हैं कि वह हमारी रक्षा करेगा। हमें सुरक्षा देगा,, लेकिन धीरे-धीरे स्थितियाँ विपरीत हो जाती है। रक्षक ही भक्षक बनने लगता है। बिजूका के कपड़े के छाये में कई तरह के पशु-पक्षी सुस्ताने लगते हैं। मटके पर बैठा पक्षी मटके (सिर) में चोट मारने के लिए तैयार है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? अवधेश मिश्र ने कई तरह के सवालों को छोड़ा है, इस श्रृंखला के माध्यम से। कुछ सवालों के जवाब उत्तरित हैं तो कुछ के अनुत्तरित। लेकिन एक बात जो सबसे ज्यादा कौंधती है, कि जब बिजूका को जानवर ही मारने लगे, बिजूका किसी को बिजका न सके, तो बिजूका का कोई मायने नहीं रह जाता।
अवधेश मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या जनपद के मठगोविंद (भोया) गाँव में 1970 ई. में हुआ था। बचपन गाँव की गलियों (कोलियों), बगीचों , खेत-खलिहानों, खेत के मेड़ों और पगडंडियों पर खेलते-कूदते बीता। बचपन से चित्रों से लगाव था, तभी उसकी अंगुलियां कभी किसी दीवार पर तो कभी थरिये में भी आकृतियाँ बनाने की कोशिश करतीं। उनकी कला-चेतना गाँव से ही उभरी और कला-रचना की भूख इस तरह बढ़ी, कि कला की विधिवत शिक्षा के लिए वे लखनऊ और फिर बनारस चले गए । बीएचयू से एमएफए, बरेली से पीएचडी तथा खैरागढ़ से डी.लिट की उपाधि प्राप्त करने के बाद फिलवक्त वे लखनऊ में रहते हुए चित्र सृजन कर रहे हैं। कला-चेतना गाँव से जुड़े होने के कारण, उनकी कृतियों में धूसर, मटमैले रंगों को देखते हैं, तो एक अलग आनंदानुभूति का अहसास होता है। ऐसा महसूस होता है जैसे जेठ महीने में जमीन सूखी पड़ी हो और अचानक बारिश की बूंदें पड़ी हों एवं धरती थोड़ी गीली हो गई हो। उस समय वहाँ एक खास तरह की सुगंध होती है, उसे महसूस करते हुए हम आनंदित हो जाते हैं। इसके साथ ही गाँव की हरियाली, हरे-भरे रंग, उमंग, त्यौहार के रंग भी समृद्धता के साथ दिखाई देते हैं। साथ ही गँवई जीवन की कई ऐसी चीजें जो जीवन को सकारात्मक गति देती हैं, हमें आपसी सहयोग की भावना एवं संबंधों की महत्ता को रेखांकित करती हैं। उस ओर भी कलाकार का ध्यान है और बहुत ही बारीकी के साथ उसे प्रस्तुत किया है ।
अवधेश मिश्र ने चित्र- सृजन के साथ ही कला की प्राचीनतम विधा रेखांकन कला के माध्यम से अपनी बातों एवं विचारों को अभिव्यक्त किया है। रेखांकन के संदर्भ में श्री मिश्र का कहना है कि रेखाओं के माध्यम से हम आदिमकाल से ही अपनी बातों को प्रस्तुत करते रहे हैं। प्रारंभिक दौर में जब कोई भाषा और बोली नहीं थी तब भी लोग अपनी बातों-संवादों को दीवारों, चट्टानों या कंदराओं पर रेखा-रूप में प्रस्तुत कर देते थे। लोग समझ भी लेते थे। तब से आज तक हमारे जीवन से जुड़ी हैं-ये रेखाएं। चित्र से अलग इसकी भाषा होती है। किसी स्थूल वस्तु या अमूर्त कृति को भी अगर हम चित्रित करते हैं, तो सबसे पहले उसके वाह्य रूप को रेखाओं के माध्यम से अंकित करते हैं। श्री मिश्र की रेखांकन-कृतियों में रेखाओं का प्रयोग काफी बारीकी के साथ किया गया है। कहीं छोटी-छोटी, कहीं छोटी- बड़ी, कहीं लोचदार तो कहीं गतिशील रेखाएं एक अलग रिदम पैदा करती हैं। संगीत की तरह रेखाएं हमारे मन-मस्तिष्क को एक शुकुन तो देती ही हैं आनंदानुभूति का अहसास भी कराती हैं। कहीं- कहीं रेखाओं के जाल में उभरती रेखा-कृतियाँ हमें अलग कल्पित दुनिया में ले जाती हैं। जब हम उसे बारीकी के साथ देखते हैं, निहारते हैं, थोड़ा सोचते हैं तो उसमें भी हमें गँवई जनजीवन एवं लोक-तत्व दृष्टिगत होते हैं। लोक तत्वों का भंडार है। कहीं-कहीं सूखी जमीन और मृगमरीचिका सा महसूस होता है तो कहीं कुएं की गहराई भी नजर आती है। खुले फलक पर उड़ते हुए कपड़े एवं बाँस की फराठी या चाचर से निर्मित पगडंडियाँ बहुत ही कलात्मक दीखती हैं। अगल-बगल रस्सी में बँधे कागज के पतंग बरबस हमें गाँव की उत्सवधर्मिता की याद ताजा कराते हैं। लोक-तत्वों को केंद्र में रखकर रेखांकित की गई अवधेश की कृतियाँ जितनी कल्पनाशील हैं, उतनी ही वैचारिक भी। उसे देखने और महसूस करने की जरूरत है।
अवधेश मिश्र ने कला-सृजन के साथ-साथ कला विषय पर लगभग तीस वर्षों से आलेख रूप में अपनी बातों-विचारों को प्रस्तुत किया है। उनके कई आलेख काफी विचारोत्तेजक एवं प्रभावशाली रहे हैं। देश के कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनके सैकड़ों आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। सतत लेखन के साथ ही कला की बहुचर्चित पत्रिका ‘कला दीर्घा’ के संस्थापक संपादक हैं । राज्य ललित कला अकादेमी, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित ‘कला त्रैमासिक’, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘समकालीन कला’ के तीन अंकों के साथ ही “कला विमर्श”, कला समीक्षा की पुस्तक का संपादन और “पहला दस्तावेज़” नामक चर्चित पुस्तक का लेखन भी इनके द्वारा किया गया है। वैसे अवधेश मिश्र का लेखन-रचना-संसार काफी बड़ा है, जिस पर विस्तार से बात करने की आवश्यकता है।
भुनेश्वर भास्कर, नई दिल्ली 18 अगस्त 2020
वैचारिक उन्मेष का एक तारतम्य
अपने कुछ मजबूत कारणों से समकालीन भारतीय चित्रकला के दृश्य पटल पर लखनऊ के चित्रकार डॉ अवधेश मिश्र की एक समर्थ पहचान सामने आई है । अवधेश मुख्य रूप से कैनवस पर तैल रंगों अथवा एक्रेलिक रंगों से चित्ररचना करते हैं । साथ ही कभी कागज पर विभिन्न माध्यमों से आरेखन रचते हैं । इन दोनों ही अभिव्यक्ति के माध्यमों में इनकी गहरी आस्था है। 1970 में फैजाबाद [अब अयोध्या], उत्तर प्रदेश के एक गाँव मठगोविंद में पैदा हुए अवधेश मिश्र की कला की शिक्षा क्रमशः लखनऊ और वाराणसी के कला महाविद्यालय एवं संकाय में हुई है । मगर इनके कला-सृजन के लिए इनके गाँव के सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश की अनगिनत स्मृतियाँ इन्हें प्रेरित करती रही हैं । आज भी इनकी सृजनात्मक गत्यात्मकता में इनके गाँव के जीवन की स्मृतियाँ सघन रूप से जुड़ी हैं । मगर अब इनकी कला में सहज लोकात्मकता नहीं, नागर समकालीन और सार्वभौम भाषा है ।
अवधेश के बड़े-बड़े कैनवास पर जो रूपाकार हैं, वह ठोस ज्यामितीय बंधनों को तोड़ कर उभरे हैं । इनमें वृत्त, त्रिकोण, आयत या वर्ग के समानुपाती तारतम्य नहीं बनकर, रचना की गतिशीलता में कुछ स्वाभाविक रूप से बनते चले गए हैं । और इनकी गति में कहीं कोई विराम नहीं दिखता । हाँ, कुछ विभाजक रेखाएं स्पष्ट हैं, जो आकारों को मजबूत संगठन प्रदान करती हैं । अवधेश ने अपनी प्रत्येक कृति के लिए अलग रंग-संयोजन किया है । किसी कृति में पीला, हरा, नीला - किसी में लाल, पीला, काला - किसी में नीला, बैगनी, गुलाबी - किसी में पीला, गुलाबी, भूरा - किसी में भूरा पीला काला तथा इसी तरह के रंग संयोजन इनकी कृतियों में हैं । इस तरह किसी खास रंग के प्रति इनका मोह कहीं प्रदर्शित नहीं होता । परंतु इनकी किसी भी कृति में कोई एक रंग अपने विशेष प्रभाव में है । कृतियों में रंगों का इस्तेमाल तूलिका से अथवा तूलिकाघातों से किया गया है । कृति में रंगों ने ज्यादातर अपने फैलाव में सपाट धरातल पकड़ा है । किंतु कहीं-कहीं तूलिका घातों से रंगों का एक शक्तिशाली बहाव दिखता है तथा कहीं चकत्ते भी दिखते हैं, रंगों के । विभाजन रेखा से अलग कहीं जहाँ रंग एक दूसरे से मिलते हैं वहाँ रूपकारों की, संवेदना उभरती है । हम इनके ज्यादातर ज्यामितीय रूपाकारों में अर्द्धअमूर्तन देखते हैं, जिन्हें देखने का, एक सुखद अनुभव होता है । इनके ज्यादातर रंग अपने मूल रंगों में ही हैं – ये एक दूसरे से अधिक घुलते-मिलते या पारदर्शिता दिखाते नहीं नजर आते । संप्रति रूपाकारों और रंगों का एक समवेत छंद है, इनकी कृतियों में, जैसा हिंदी कविता के विविध मात्रिक और वर्णिक छंदों का शब्द-विन्यास होता है, लगभग वैसा ही विन्यास हम इनकी कृतियों में देख सकते हैं । मगर यह कृतियां काव्यात्मक या काव्यमयी कतई नहीं हैं । उनकी कृतियों में गांव की अविस्मृत स्मृतियां हैं । मसलन खेतों में खड़े बिजूके, जलाशयों में तैरती मछलियां, बंदनवार, तिकोनी झाड़ियां कागज की वायु चक्री, कागज की नाव, दीवार पर हाथी, आकाश में जहाज, चुंबक टूटे पहिये, टूटी कड़ियां, सूरज-चांद और कहीं दहकता आकाश । किसी किसी कृति में केवल ज्यामिति रूप ही एक दूसरे को विभाजित करते हैं तथा सीधी सपाट आड़ी-तिरछी या क्षैतिज सतहों का निर्माण करते हैं, इनमें लगाए रंग अपने मूल स्वरूप में ही ताजा और प्रभावशाली हैं । इनमें प्रकाश के कई स्तरों की विविधता दिखती है। परंतु यह उच्चतम प्रकाश से गहनतम अंधेरे की ओर हैं। हमारा दृष्टि-विज्ञान इनकी कृतियों को कई स्तरों पर देखता है। इनकी कला विशुद्ध रूप से भारतीय है और समकालीनता के मजबूत आग्रहों के साथ है।
अवधेश 1996 से ही निरंतर सृजनशील हैं। अब तक इनकी कृतियां देश भर की लगभग बड़ी सभी समूह प्रदर्शनों में देखी गई हैं। साथ ही देश की कुछ बड़ी कला-दीर्घाओं में, सभी प्रमुख नगरों, महानगरों में इनकी कृतियों की एकल प्रदर्शनियाँ आयोजित हुई है। देश से बाहर भी कुछ समूह प्रदर्शनियों में इनकी कृतियां प्रदर्शित हुई है। इसलिए डॉ अवधेश मिश्र समकालीन भारतीय कला-जगत में अब अपनी समर्थ पहचान के साथ हैं। शुरू में जब इन्होंने बनारस घाट के कुछ सैरे बनाए थे, तब लगा था कि कैनवास पर बहुत संभलकर यह आकार गढ़ रहे हैं और रंग भी इनमें कुछ उच्छृंखल से हैं, मगर ये जल्द ही संभल गए और सृजन के शिल्प का विज्ञान समझकर अपने वैचारिक उन्मेष को विन्यासित किया। गांव के अदृश्य दृश्य कुछ अमूर्तन स्वरूप लिए कैनवास पर उभरे; जिनमें क्षितिज था, जमीन पर उभरती किरचें थीं, दग्ध सूरज था, कुछ मछलियां या पंखुड़ियां थीं, जिनके थुथने चटक लाल थे और कैनवास पर तैल रंगों से इनके अपेक्षित उभार थे। इन सब में हम कोई विखराव नहीं देखते हैं – प्रायः इनके कुल प्रभाव हमें संवेदित करते हैं। अवधेश के बिजूका श्रृंखला की कृतियों को देख कर तो लगता है कि उन्होंने अपने गांव मठगोविंद के पास के खेतों की मेड़ों पर सैकड़ों बार परिभ्रमण किया होगा और इसकी अनुभूतियां इनके दिल दिमाग में रच बस गई होंगी। चूँकि खरबूजे के खेत में खड़े किए गए बिजूके हों या मकई के खेत में खड़े किए गए बिजूके-इनके मकसद एक ही होते हैं, लेकिन ये खड़े किए जाते हैं अलग-अलग अंदाज में। यही अंदाज कलाकार के हृदय की गहन अनुभूतियों से निकलकर कैनवास, पर खड़ा हुआ है। भारतीय समाज में बिजूकों की अन्तरमंशा भी जगजाहिर है। यह बिजूके पशुओं को डराने के लिए ही नहीं होते- यह तो गांव के गरीब और दीन – हीन लोगों में भी दहशत पैदा करने के लिए रात के अंधेरे में खेतों से मकई की बाली या खरबूजे चुराते हैं। सच कहें तो ये बिजूके कहीं प्रतीक भी हैं - सामंतवादी प्रवृत्तियों के। अपनी इस श्रृंखला की कृतियों में अवधेश से बिजूकों को खड़ा करने में अनेक बिंबों की स्थापना की है- खेतों के बीच बांस की खपच्ची के शीर्ष पर काली हांडी और बँधे डंडे में टँगी पुरानी कमीज और इनके अवयवों का आरेखन एवं रंग-संयोजन हमें एक वैचारिक उन्मेष का तारतम्य भी दिखाता है।
गांव के मेले में बिकती वायु चक्री भी अद्भुत है अवधेश की कृतियों में। बांस की सींक में लगी कागज या बांस की पत्तियों से बनी वायु चक्री जो हल्की हवा में भी तेज घूमती है और बच्चे इसे हाथ में लेकर खुश होकर घूमते हैं तथा बड़े इसे ऐसी जगह लगा देते हैं जहां यह हवा से घूमती रहे। ऐसा ही कुछ परिदृश्य कैनवास पर रंगों और प्रकाश के विविध आरोहों – अवरोहों के साथ चित्रित हुआ है। यह सब कला के एक अंतरंग संसार की रचना करता है। इनके साथ ही अवधेश की कृतियों में कुछ तांत्रिक प्रतीक भी कहीं दिखते हैं, मगर यह महज संयोग है कि इनके ज्यामितीय रूपाकारों की स्थापना ही तांत्रिक रूपाकारों जैसी दिखती है। लेकिन न इनमें तांत्रिक रूपाकारों की तरह कहीं ज्योति अथवा प्रकाश-पुंज है और न ही तांत्रिक यंत्रों के स्वरूप, ध्वनियां या गंडे - ताबीज के प्रतीक हैं। दरअसल इनके इस तरह के चित्रों में प्रकृति और ब्रह्मांड की एक आंतरिक शक्ति का अनुभव होता है।
अवधेश वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कुछ विद्रूपताओं को भी अपना विषय बना चुके हैं। मसलन बहुत छोटे बच्चे की पीठ पर लदे स्कूल के भारी बस्ते और उनकी टेढ़ी होती कमर। पाठ्यक्रम का बोझ, अनुशासन की मार, शिक्षकों के दंड और इन सबसे बिखर गया उनका बचपन। यह सब एक विचार हैं अवधेश की 2013-14 की कृतियों में। परंतु इनके रंगों और रूपाकारों की रचनात्मकता में कोई बदलाव नहीं है। इनमें वैचारिक उन्मेष का एक आंतरिक सिलसिला है। रचनात्मकता की एक विकास गति है। अवधेश का सूरज यदि दहकते रंगों में है तो चांद कोमल हरे और शब्ज हरे तथा उजले हैं। यह कहीं काला और त्रिभाज्य या विभाज्य भी दिखते हैं, तो कहीं उग्र कहीं शांत हैं। रूपाकारों या आकृतियों के टुकड़ों में भी रंगों की संगति या रंगों के छंद इस तरह उभरे हैं, जैसे इनकी आंतरिक संगति संगीत मय हो।
स्वाभाविक रूप से इनमें विचार और दर्शन का भी समावेश हुआ है। लेकिन यह कहीं बोझिल नहीं है। चूँकि डॉ अवधेश मिश्र स्वयं एक कला-मर्मज्ञ हैं, इसलिए कला की भाषा को, उत्स को, संवाद को एवं इसके समग्र पक्षों को ठीक से देखते रहे हैं। उन्होंने अब तक काफी कुछ लिखा भी है। एक कला पत्रिका “कला दीर्घा” का संपादन नियमित कई वर्षों से कर रहे हैं। इस पत्रिका ने देशभर के सृजनशील कलाकारों एवं अनेक कला-संदर्भों की पहचान की है तथा उन पर विचार किया है। खासकर अपने संपादकीय में अवधेश ने कई बार ऐसे मुद्दों पर बेबाक लहजे में अपनी बात रखी है, जिन पर स्वनाम धन्य कलाकार और कला लेखक भी प्रायः चुप रहते हैं। अवधेश के विचारों और व्यवहार में प्रायः समन्वय रहता है। कुल मिलाकर इनका व्यक्तित्व सहज प्रभावित करता है। यह केवल कलाकार और कला लेखक ही नहीं है, एक कुशल कला-अध्यापक भी हैं। अपनी दिनचर्या में एक साथ कई कार्यों को बेहतर अंजाम देना इनके सबल आत्मानुशासन से ही संभव हो पाता है।
अवधेश की कृतियों की कुछ और बातें हैं जिनका जिक्र करना अपेक्षित है। इनकी कृति के आकारों के घनवादी ढांचे में कहीं हरी घास की एक सतह उभरती है - कहीं इनके सूरज की तेज चमक के साथ लाल और पीले रंग पिघलते हुए हैं- कहीं पिरामिड की तरह का एक ठोस पिंड धरती को चुभो रहा है - कहीं रंग हल्दी जैसे हैं, कहीं सिंदूरी हैं, कहीं शब्ज हरे हैं- और ये सब ताजा दिखते हैं। इसलिए इन्हें ठीक से देखने की एक रोमांचक अनुभूति होती है। इनमें बिंबो, प्रतीकों तथा विचारों का एक मजबूत तारतम्य भी है।
अवधेश अमन, वरिष्ठ चित्रकार एवं कला समीक्षक, पटना, 2015
अद्भुत बिंबों का चितेरा
अद्भुत बिंबों का जहाँ कलाकार के मानस में बचपन से विद्यमान रहता है। वह जो देखता है उसे ही अंतस में स्थान देता है। वह सत्य और स्पष्टता का अनुयाई होता है। इसीलिए कलाकार के बिंबों के रूपाकार, रंग और रेखाओं के वशीभूत हो जनमानस की आत्मा को एक वैचारिक दृष्टि प्रदान करने के साथ ही रसानुभूति भी कराते हैं। इन्हीं अनुभूतियों को डॉ अवधेश मिश्र अपनी तूलिका से कैनवास पर सजीव करने में अनवरत प्रयासरत हैं। मिश्रा जी का सृजन क्षेत्र बहुत विस्तृत है ।कई माध्यमों से अपनी संस्कारित अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर स्थायित्व प्रदान करते हैं।
कभी तूलिका से एक भावपूर्ण चित्रकार के रूप में, कभी कलम से संवेदनीय लेखन के माध्यम से। इसमें यह तो स्पष्ट ही होता है कि भाव को प्रवाह चाहिए सो कहीं न कहीं वह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम खोज ही लेता है। इसीलिए मिश्र जी के पास बिंबों का खजाना है। इस खजाने के मूल में उनके गांव की रची बसी मिट्टी की सौंधी महक, पेड़ों से छनकर आता अद्भुत प्रकाश, प्रकृति के विविध रूपाकारों के साथ रंगों का अद्भुत संसार, साथ ही अनेक नवीन टेक्स्चर का सलोनापन।
मिश्र जी का बचपन गांव की स्वाभाविकता में पला-बढ़ा। साथ ही संस्कारों का ताना-बाना भी बहुत स्पष्टता लिए हुए है। इसलिए मिश्र जी की कृतियों में बिम्ब प्रकृति के आसपास से ही प्रेरित होते हैं, जो अनवरत प्रौढ़ होते रहते हैं। जिस प्रकार टैगोर ने अपने अथाह बिंबों को प्रकृति के सान्निध्य में रहकर समेटा और वे पल प्रतिपल अवसर मिलते ही व्यक्त होते गये, किंतु पूर्णता, उन्हें उम्र के अस्तानचल में आकर रंग, रेखाओं और अद्भुत प्रकाश को, दशकों बाद, अनायास ही कैनवास पर व्यक्त होकर मिली। इसी प्रकार मिश्र जी ने भी अप्रत्यक्ष रूप से अनगिनत बिंबों का जमघट अपने बालपन के अंतस में ही भर लिया था, जो एक संवेदनशील स्थिति की सहज प्रक्रिया होती है। इसी संवेदनशीलता को मनोवैज्ञानिकों ने कलाकार की स्वाभाविक प्रक्रिया बताई है, और कहा है कि संवेदनशील बालक ही बचपन की अथाह स्मृतियों को अंतस में पोटली बांधकर रखता है और अवसर मिलते ही वह अनेक रूपाकारों की अभिव्यक्ति सहज कर समसामयिक दायरे के परिप्रेक्ष्य में संस्कारों की दहलीज पर रेखाओं को रंगों के साथ दमकते प्रकाश की धरा पर नवीन कृतियों को जन्म दे देता है।
इन्हीं बिंबों की अनुभूति को मिश्र जी के अद्भुत रचना संसार में देखने के बाद महसूस किया जा सकता है । इनकी कृतियों में प्रकाश, रंग, रेखाओं के साथ लास्य नृत्य करते हुए सा प्रतीत होता है । प्रारंभ से ही मुझे आपकी कृतियों में अद्भुत प्रकाश का सानिध्य मिला, जो मुझे बरबस अपनी ओर आकर्षित करता था। इसलिए आपका हर चित्र ताजगी से भरपूर होता है। वह चाहे रेखाचित्र हो या रंगों से लबालब नवीन ताने-बाने से बुने प्रकाश से संयोजित फलक तरो-ताजे प्राथमिक रंगों का कोरा अंकन, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चित्र के पीछे प्रकाश की किरणें अपना सहयोग प्रदान कर रही हैं। किसी भी श्रृंखला में प्रकाश के अद्भुत नजारे का आनंद इसी प्रकार उठाया जा सकता है। जिस प्रकार टर्नर के चित्रों को देखकर ताजगी महसूस होती है , उसी ताजगी को मिश्र जी ने फलक पर अंकित किया है।
मिश्र जी की कृतियों में मैंने बचपन का उल्लास, गांव की सोंधी महक और प्रकृति के अद्भुत छाया-प्रकाश का लावण्य अनुभव किया है। ग्रामीण अंचल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को संस्कारित करते हुए अपने मन के गवाक्षों से प्रकाश की अनुभूतियों को तूलिका से अर्थ देते हुए नवीन ताने-बाने से ग्रामीण बिंबों को नवीन सार्थकता प्रदान करते हुए अद्भुत सृजन में लगे हैं । उनके अंतःकरण में विस्थापित स्मृतियों का झुरमुट कैनवास पर इस प्रकार रूपाइत होता है, कि ग्रामीण अंचल की सहजता उल्लास भर-भर छलकने लगती है । इस छलकन में विविध नवीन सतहों की नवीन बनावट छाया-प्रकाश से और भी दमक उठती है ।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के मठगोविंद गांव से बाल बिंबों को समेटते हुए, अनुभूतियां जब बनारस की छटा से प्रवेश करती हैं, तो यही बालमन के बिंब युवावस्था में झूम-झूम जाते हैं और कला प्रशिक्षण से अपने अंतस के स्थिर भावों को जब विस्तार मिला जो रंग और रेखाओं के उपरांत शब्दों का भी रचना संसार सृजित कर रोहिलखंड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की । इतना सशक्त रचनाकार जिसके पास रंग-रेखाओं के साथ शब्द भंडार भी असीमित है। इस प्रकार इस अद्भुत संस्कारी युवा के लिए अनेक सम्मान, स्कॉलरशिप, देश-विदेश में चित्रों की प्रदर्शनी यह सभी प्रतिभाशाली रचनाकार के फुटप्रिंट के समान होते हैं, उसके मन में हमेशा रहते हैं ।
कहते हैं कि रचना रचनाकार की प्रतिकृति होती है । यह मुझे अनुभूत तब हुआ, जब मैं एक दशक बाद मिश्र जी से मिली । तब मुझे वही सौम्यता, वही सहजता उनमें स्पष्ट दृष्टिगत हुए, जो उनकी अनगिनत कृतियों में समाहित है ।
उनसे मिलने के बाद उनका रचना संसार सहज ही अंतस में स्वतः कौंध गया, जितना सौम्य उनका व्यक्तित्व, उनके संस्कार, उतने ही सौम्य उनकी रचनाएं भी । किंतु इस सौम्यता में जो गहराई देखने को मिली, वह उनकी रचना धर्मिता में भी सहज ही साकार होती हुई प्रतीत होती है । इनकी रचनाओं में अंतस की गहराई भावों को सहज रूपायित तो करती है, किंतु दर्शक पर उतनी ही गहराई से विचारों की सतह को नमी प्रदान कर जाती है । दर्शक भाव-विभोर हो, विचारों के मंथन में तन्मय हो, अनुभूति के वार्तालाप को आत्मसात करता है । अर्थात कभी मिश्र जी मूर्त से अमूर्त होते बिंबों की यात्रा के सहचर होते हैं, तो कभी अमूर्त से मूर्त के बिंबों के सहयात्री होते हैं । किंतु इस बीच कभी भी मिश्र जी अपने सौम्यता, सहायता से विलग नहीं हुए । अपने अंतस के वैचारिक संवाद को अनवरत विस्तार देते हैं । आप के प्रारंभिक चित्रों में रंग, रेखाओं का झुरमुट स्पष्ट होता हुआ दिखाई देता है । रेखाएं आपसी संवाद में तन्मय हो रंगों के साथ नवीन प्रवाह कैनवास पर प्रसारित करती हुई प्रतीत होती हैं ।
बाद के चित्रों में जब मिश्र जी की वैचारिकता के बिम्ब, प्रौढ़ हुए उनके अंतस में सामाजिक अस्पष्टता जब स्पष्ट हुई तो शब्दों की यात्रा के साथ ही अंतस के भाव बिम्ब भी स्पष्ट हुए । यही सहजता और मूर्त हो, पूर्ण प्रतीकात्मक हो, बाद में कैनवास पर स्पष्ट विचारों के साथ रंग और रेखाओं से सृजित की । इस समय के चित्र, मिश्र जी की रचना प्रक्रिया के अनंत विस्तार के द्योतक है, जब आप इनके अस्पष्ट बिंबों के अंदर जाने का रास्ता खोजेंगे या उनकी कृतियों से वार्तालाप करेंगे, तो आपको लगेगा कि आप स्वयं कलाकार की उन अनछुई अनुभूतियों तक पहुंच गए हैं । जिसे कलाकार ने इसी समाज से चुना है और दर्शक का, चित्र के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है । यह दर्शक के साथ कृति की एकात्मकता ही रसानुभूति है ।
जैसे-जैसे मिश्र जी की सामाजिक पहलुओं की अनुभूति होती गई, उसे वे मन में स्थापित बिंबों के साथ जोड़कर कैनवास पर उकेरते गए । ऐसी ही श्रृंखला ‘बिजूका’ है । इसको मिश्र जी ने बहुत ही विस्तृत आयामों में अपने कैनवास का विषय बना कर समाज को एक नवीन दृष्टि दी है और इस श्रृंखला को संवेदनीय पहलू से जोड़ा है । साथ ही राजनीति के विभिन्न रंगों को उसमें समाहित किया है । मिश्र जी ने सभी आत्मिक संवाद अपने अंतस की अद्भुत विरासत से कुछ रेखाओं को रंगों से भर कर कैनवास पर प्रतीकात्मक रूप से साकार किया है । यह इतनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, जिसे मिश्र जी ने सुंदर संयोजन, स्पेस और रंगों की गरिमा से मंडित किया है । मिश्र जी के चित्रों में प्रकाश का उत्स सहज ही प्रस्फुटित सा प्रतीत होता है । रेखाएं लास्य नृत्य करती हुई मधुर तान को आत्मसात कर लय और ताल के मध्य एक तादात्म्य स्थापित करती है । चित्रों का संयोजन स्वतः ही सृजित हुआ है । किसी चित्र को अनावश्यक ढंग से नहीं सृजित किया गया है । मिश्र जी के मन के गवाक्ष में जो आया वह सहज ही अभिव्यक्त हुआ है । कुछ भी बनावटी नहीं है । उसमें जो प्रमुख है, वह ग्रामीण सहजता का भाव है । इतनी यथार्थवादी आत्मिक अभिव्यक्ति होने पर भी अंतस के बिंबों की यात्रा में सार्थक बिंब ही विषयानुरूप रंगों से छाया-प्रकाश के माध्यम से व्यक्त हुई है । विषय के अनुरूप ही हमारी सांस्कृतिक संवेदनशीलता को सहज ही कैनवास पर स्थान दिया है ।
अंत में अगर यह कहा जाए कि मिश्र जी पारंपरिक लोक बिंबों को नवीन दृष्टि के साथ जोड़कर अमूर्तन को ही चित्रित करते हैं, तो अनुचित न होगा । इन सभी विषयों की सहजता ही इनके रचना संसार का मूल मंत्र है । सबसे बड़ी विशेषता है मिश्र जी के चित्रों में, अद्भुत प्रकाश का अंकन, जो स्पेस एवं टेक्सचर को और भी प्रभावशाली संतुलन प्रदान करता है । रेखा और रंगों का निरर्थक प्रलोभन नहीं है । जितना सहज व्यक्तित्व है, उतनी ही सहज कैनवास की विषय वस्तु भी है, जो अमूर्त होते हुए भी जनमानस के अंतस को झकझोर जाती है । चित्र पारंपरिक होकर भी परंपरा से विलग हैं । अमूर्त होकर भी मूर्तन के राग अलापने नजर आते हैं । कैनवास पर रंगों का बालपन स्वयं प्रौढ़ होता दिखाई पड़ता है । इस प्रकार मिश्र जी ने अपने अंतस की संवेदना को प्रारंभिक चित्रों से लेकर समसामयिक चित्रों, ‘स्कूल डेज़’ एवं ‘बिजूका’ तक का सफर आसानी से रंग रेखाओं के ताने-बाने से सार्थक सिद्ध किया गया है । फलक पर जो प्रकाश की छन कर आती किरणें दिखाई देती हैं वे इनके सौम्य व्यक्तित्व को स्पष्ट अंकित करती हुई सी प्रतीत होती हैं । साथ ही बिंबों को चित्रण के क्षेत्र में नवीनता प्रदान की है । (2 फरवरी 2014, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ)
डॉ अन्नपूर्णा शुक्ला, वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान, 2014
चित्रकला - भाषा के नए व्यवहार की प्रस्तुति
यह कोई सन 2004 की बात होगी । लखनऊ के गोमती नगर की एक कला दीर्घा में, अवधेश मिश्र के ड्राइंग की एकल प्रदर्शनी आयोजित थी । सीपिया-काले-सफेद रंग के उन ड्राइंग्स में बारीक बुनाई सा दृश्य उनके किसी स्वेटर की तरह बहुत मनोयोग से बनाया हुआ लगता था । चित्रकार की निपुण अभिव्यक्ति ने अनायास ही अपने कला संसार में मुझे आमंत्रित कर लिया था । एक लाल बिंदु लगभग सभी चित्रों में केंद्रीय भूमिका में था, जिससे कुछ स्पष्ट सूत्र निकलते या उस बिंदु की ओर जाते लगते थे । यह सूत्र ही जैसे बाकी आकारों को संभालते थे । गौर करने पर “विस्थापन” शीर्षक इस श्रृंखला को एक अभीष्ट अर्थ प्रदान करता लगता था ।
यदि इस बात का एक अर्थ लें कि अवधेश मिश्र का जन्म अवध प्रांत में हुआ है और सन 1992 के दौरान सांप्रदायिकता के भीषण तांडव में भारतीय राजनैतिक इतिहास में अवध क्षेत्र अराजक ताकतों की वजह से बेहतर चर्चा में आ गया । इस क्षेत्र की संस्कृति से प्रेम वाले संवेदनशील लोगों को राम जन्मभूमि / बाबरी मस्जिद कांड ने भीतर तक आहत किया । सांप्रदायिक उन्माद और कट्टरता की पराकाष्ठा ने अवध की गंगा जमुनी तहजीब को अपदस्थ करने में कोई कसर न छोड़ी ।
साहचर्य भाव और भाईचारे का व्यवहार अधर्म के हत्थे चढ़ कर दो हिंसक तबकों के हवाले हो गया और एक बड़ी दरार दो कोणों के बीच स्पष्ट रूप से उभर आई । चालाक राजनैतिकों के इस षड्यंत्र में आम जनता का सौहार्द फँसकर लगभग नष्ट हो गया । ऐसे कठिन यथार्थ से अवधेश मिश्र जैसे सतर्क रचनाकार के प्रभावित होने के जायज कारण हैं । अवधेश मिश्र अपने रेखांकनों की प्रदर्शनी का शीर्षक ‘विस्थापन’ रखते हैं तो एक सृजनशील व्यक्ति के ‘आत्म-विस्थापन’ को भी अभिव्यक्त करते लगते हैं । एक वास्तविक रचनाकार सृष्टि को धर्म, जाति, वंश, नस्ल से परे मनुष्यता के सहजीवी परिसर के रूप में ही देखना चाहता है । निश्चित तौर पर अपनी जमीन और जातीयता को अत्यंत प्रेम करने वाले अवधेश मिश्र के भीतर की टूटन और आत्म विलगाव का ही परिणाम विस्थापन सीरीज के चित्रों में आकार पा सका है । चित्रों को गौर से देखने पर, समस्त विसंगतियों के बावजूद एक प्रसवा माँ की छवि उभरती है । इन चित्रों में जन्म के पूर्व के अनुभवों को जीता हुआ अवधेश मिश्र का रचनाकार “इतिहास के अंत” की घोषणाओं के विरुद्ध एक सार्थक सृजनात्मक प्रतिवाद रच रहा है, जो भविष्य है ।
अवधेश मिश्र की कला-यात्रा को मैं चार पड़ाव या फेज़ में देखता हूँ ।
पहले फेज़ में उनके छात्र जीवन में बनाए गए चित्र हैं । इन चित्रों में कलाकारी का आधार (फंडामेंटल) मजबूत करने की कोशिशें हैं । इस दौर में अवधेश अधिकांश चित्रकारों के प्रिय विषय - गणेश को विभिन्न विधियों एवं रूपाकारों में चित्रित करते हैं । मंदिर और घाट के दृश्य बनाते हैं । लेकिन इन चित्रों में भी अवधेश मिश्र के भीतर किसी धर्म के प्रति अतिवादी ललक नहीं दिखती । एक ऐसा ही अशीर्षक चित्र है जो हरे, सफेद और सांवले रंगों से बनाया गया है । इसमें नदी का घाट है, घाट पर मंदिर है, मंदिर की पताकाओं के लिए डंडे तो हैं लेकिन झंडे नदारद हैं । इस प्रचलित दृश्य में भी अवधेश मिश्र अपना कोण निर्धारित कर लेते हैं । इस दौर के चित्रों में रेखांकन, मूर्तन (फिगरेटिव चित्र) और कई प्रयोग करते हुए अवधेश मिश्र अपनी चित्र-भाषा की तलाश करते हैं । दूसरे दौर के चित्रों में अवधेश मिश्र के शीर्षकहीन अमूर्तनों की सीरीज है । यह फेज़ लगभग सन 2000 के आसपास शुरू होता है और इन चित्रों से अवधेश मिश्र को एक चित्रकार के रूप में पुख्ता पहचान प्राप्त होती है । इसी समय में अवधेश मिश्र की चर्चित चित्र श्रृंखला ‘विस्थापन’ प्रदर्शित होती है ।
इन चित्रों में ऊहापोह, उलझन, भटकाव और आशंका की अमूर्त, किंतु स्पष्ट छवियों को महसूस किया जा सकता है । मातृत्व की छवि ‘विस्थापन’ विषय के बहुलार्थ हमारे सामने अपनी यति-गति के साथ प्रस्तुत कर देती है । ऐसे में यह विस्थापन अधिक मार्मिक और मधुर एक साथ हो जाता है । एक स्वप्न की ओर जाता यह अनुभव सृष्टि की अजस्रधारा से जुड़ जाता है । यहाँ मृत्यु की हद तक आशंका है, लेकिन खरगोश की पुतलियों से एक सूर्य की द्विवर्णी फलक पर उपस्थिति जैसे कितने ही रंगों का विस्तार सहृदय दर्शकों के सामने उजागर कर देती है, जो संबल देती है । दूसरे फेज़ के कामों से अवधेश की आगे की रचनाओं को एक ऐसा विषय मिलता है, जिससे कई सीरीज में विकसित होते हुए अपना रूपाकार प्राप्त करता है । जैसा कि मुझे लगता है, तीसरे फेज़ को इसी विषय के विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए । इस फेस के चित्रों में अवधेश बचपन की स्मृतियों को कुरेद-कुरेद कर कैनवस पर पुनः जीते हैं । इनमें एक मासूमियत है, जो रंगीन उत्सवी झंडियों, वंदनवारों की तरह मंगल रच रही है । हवा के स्पर्श मात्र से मस्त होकर तरंगित । एक कोमल स्वप्न है जो विराट आसमान में रंग-बिरंगी पतंगों सा पंख फैलाकर उड़ता हुआ नए हाथों में सध रहा है । बचपन की कुछ खट्टी यादें भी हैं, जो स्मृतियों से छनकर अपनी विनम्र कोमलता के साथ बड़ों के व्यवहार को सुधारने का संदेश दे रही हैं ।
ऐसी अनेक स्मृतियों का कोलाज हम जैसे कितने ही लोगों का जिया गया जीवन है, जिसे हम इन चित्रों को देखते हुए पुनः जीते हैं, और कुटिल उत्तर-आधुनिक समय में क्षरित होती जा रही अपनी कोमल मासूमियत को नए सिरे से याद करते हैं । इन चित्रों में नया प्रतियोगी दौर भी दर्ज है, जो बच्चों के कोमल कंधों पर बढ़ते बोझ की तरह सवार है । इन चित्रों में रचनाकार का सामाजिक कथन बहुत स्पष्ट और मार्मिक है ।
चौथी फेज़ में अवधेश मिश्र की बहुचर्चित ‘बिज़ूका’ सीरीज़ हमारे सामने आती है । इस सीरीज़ में सन 2010 और 2011 के अधिकांश चित्र हैं । इस सीरीज़ तक आते-आते अवधेश मिश्र की चित्र-भाषा गंभीर राजनैतिक तेवर अख्तियार कर लेती है । जैसा कि हम सब जानते हैं कि खेतों में घास-फूस और कपड़े से बना मिट्टी की हांडी को सर की जगह प्रयोग करके कृत्रिम मानवीय आकार का ‘बिजूका’ पक्षियों-जानवरों आदि से फसलों की रक्षा के लिए खेतों में खड़ा किया जाता है । गांव तो गांव, शहरों में भी लोग अपने मकान-दूकान को बुरी नजर से बचाने के लिए “नजरबट्टू” मुख्य द्वार पर लगा देते हैं । यह “बिज़ूका” एक छद्म सुरक्षाकर्मी का भ्रम तैयार करता है । यह भ्रम हमारी संपूर्ण व्यवस्था को अपने घेरे में लेकर एक बड़ा परिप्रेक्ष्य प्राप्त कर लेता है । आज जब हमारा लोकतंत्र प्रश्नों में घिर गया है, ऐसे में व्यवस्थापिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका से आम आदमी का विश्वास उठता जा रहा है ।
अवधेश मिश्र आमजन के शोषण, उत्पीड़न और आक्रोश को अपने चित्रों में आकार देकर चित्रकला की ‘सर्व सुखद’ मानी जाने वाली भाषा का व्यवहार बदल कर रख देते हैं । यह एक नए सामाजिक हस्तक्षेप और विमर्श की नई उपस्थिति है, जिसे युवा चित्रकार अवधेश मिश्र ने स्पष्ट तर्कों और साहस के बलबूते बहुत कुशल कलाकारी से संभव कर दिया है । तैल माध्यम में चटक रंगों के बर्ताव में अवधेश मिश्र के साफ दृष्टिकोण को पहचाना जा सकता है । युवा चित्रकला में अवधेश मिश्र की उपस्थिति सर्वथा एक नई सरोकार युक्त भाषा की प्रस्तोता है । लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। (06 अक्तूबर 2013, कल्पतरु एक्स्प्रेस, लखनऊ)
कुमार अनुपम, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली 2013
सचेतनता व संभावनाओं का चित्रकार
उत्तर प्रदेश के जो कुछ चित्रकार निरंतर काम कर रहे हैं, उनमें अवधेश मिश्र का काम हमारा ध्यान खींचता है। अवधेश के काम का फलक व्यापक है, क्योंकि वहाँ अमूर्त से लेकर ग्रामीण जीवन, बच्चों से लेकर रंगों की गहरी संवेदना व आनंद के स्तर तक जाने वाले लोगों की जगह है। अवधेश के काम को देखने के लिए कला दर्शकों, कला समीक्षकों, कला प्रेमियों व कलाकार साथियों को अपना दिल-दिमाग खाली करके जाना जरूरी है। जिसे ‘प्रीऑक्यूपाइड स्टेट ऑफ माइंड’ कहा जाता है, उससे मुक्त होकर अवधेश के काम को देखना वास्तव में अवधेश की कला को समझने में सहायक होगा, ऐसा मेरा मानना है - जो कि ऐसी स्थिति किसी भी कलाकार के काम को देखते वक्त बनी होनी चाहिए, पर अवधेश के काम को देखते वक्त मैं इस स्थिति पर इसलिए जोर दे रहा हूँ कि अवधेश का विकास अमूर्तन से यथार्थ की ओर जाता दिखाई दे रहा है। वहाँ एक बड़ी बारीक ‘स्पिरिचुअलिटी’ है, जिसे अवधेश का यथार्थ देखते हुए कई बार ‘मिस’ कर जाना पड़ता है, लेकिन यह ‘स्प्रिचुअलिटी’ ही है जो अवधेश को अन्य समवयस्क चित्रकारों से उन्हें अलग करती है। यह स्पिरिचुअलिटी अध्यात्म के अर्थ में नहीं है, जीवन के अर्थ में है, इसे समझना जरूरी है। मुझे लगता है इस स्पिरिचुअलिटी की व्याख्या, तकनीकी विश्लेषण संभव नहीं है, उसे महसूस करते, उसके यथार्थ को पकड़ने की संवेदना तक जाने की जरूरत है। कहते हैं, जितनी ललित कलाएँ हैं, उनकी विस्तृत, तकनीकी या शाब्दिक व्याख्या नहीं की जा सकती। उसके आउटलाइंस (बहिरंग) को देखते-समझते हुए उसके अंदर प्रवेश किया जा सकता है। इस तरह अंतरंग प्रवेश की प्रक्रिया से ही ललित कलाओं के अंतरंग तक पहुँचा जा सकता है, जिस कारण व्यक्ति व समाज के सुसंस्कृत होने के रास्ते व प्रक्रिया का विस्तार होता है।
अवधेश मिश्र अपने काम को अमूर्तन व रंग-संयोजन से बढ़ाते हुए क्यूविज़म (ज्यामितीय संरचना शिल्प) तक अभी ले आए हैं, पर इनमें प्रयोग के नए गवाक्ष भी खोले हैं। यहाँ प्रतीक भी है और संप्रेषण भी, रंग रेखाओं व प्रतीकों सबका स्वतंत्र अस्तित्व है और उनका मिलाजुला एक प्रभाव भी।
चित्रकला की प्रतिभा में एक जमाना था, जब चित्रकारों में रंगों-गहरे रंगों- परत-दर-परत रंगों के लिए एक विशेष उन्माद था (मैं इस प्रक्रिया को उन्माद ही कहता हूँ) । अवधेश ने भी शुरू से रंगो का खूब प्रयोग किया है, पर इन रंगों की गहराई क्रमशः बढ़ती है। अगर किसी एक रंग पर ही काम का आधार (बेस) है, तो वह हल्के से क्रमशः गाढ़े की तरफ जाता है, यानी उसका एक स्वाभाविक विकास दिखाई देता है, जो मनोभावों को प्रदर्शित करने का एक स्वाभाविक माध्यम बनता है। अवधेश के चित्र शीर्षकहीन हैं, इसीलिए चित्रकार से संवाद संभव नहीं है, बल्कि दर्शक को स्वयं, कृति के एक पात्र की तरह उपस्थित हो रसास्वादन करना है।
अवधेश के कुछ सालों के पहले के काम में रंगों के साथ-साथ लाल बिंदियों या गोले का एक सात्विक संयोजन उपस्थित रहता था। कलाकार के अनुसार यह चित्र की एकरसता तोड़ने के एक साधन के रूप में प्रयोग है, पर मैं हमेशा इस प्रयास को उस आत्मिक संस्कार का परिणाम मानता हूँ जो अयोध्या जैसी जगह में बचपन के बीतने से अवधेश के अन्तर्मन् में अनजाने ही कहीं बैठा हुआ है। इसे हम रचनाकार पर लोकल का प्रभाव कहते हैं। वे अदृश्य स्मृतियां व प्रभाव होते हैं जो रचनाकार को स्थानीयता व आसपास के परिदृश्य से प्राप्त होते हैं। इसे ही मैं लोकल कहता हूँ। अवधेश के काम में यह आज भी है पर उसका रूप बदला हुआ है - वह अनुभव व संवेदना के विस्तार को व्यक्त करता है - एक छोटा - सा लाल गोला, अब विस्तृत हो गया है, उसमें ललाट पर टीके का आभास नहीं है, सूरज की विशालता, व्यापकता और बहुआयामी प्रभाव है, जिसे दर्शक अपनी तरह से समझ सकता है। गोला उनके रेखांकनों में भी है, पर विशिष्टता के साथ।
इसी लाल गोले से अवधेश ने रंगों के विविध विस्तार में जाने की राह खोजी है। अब यह गोला केवल लाल नहीं है, वह कहीं सफेद और कहीं आसमानी सा है, कहीं नीला, सफेद, पीला और विभिन्न रंगों से कटता हुआ। यह गोला एक ब्रह्मांड है, जिसका पर्यावरण जगह-जगह प्रदूषित किया गया है। पूंजीवाद कहता है ब्रह्मांड - पूरी प्रतिभा - एक हो रही है, भूमंडलीकरण हो गया है, कलाकार देखता है कि पूरी दुनिया विखंडित हो रही है और दृश्यों के लिए इतनी सारी खिड़कियां खुल गई हैं, कि कहाँ से देखें, क्या सही है, तय करना मुश्किल हो गया है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अवधेश का आध्यात्मिक - सांसारिक गोला अब उस यथार्थ का गोला है, जहाँ पूँजी ने विखंडन को अपना ध्येय बना लिया है।
अवधेश के रंगों के ही विविध आयाम नहीं है, बल्कि रेखाओं के भी आयाम उतने ही विस्तृत हैं, इसीलिए मुझे लगता है जाने - अनजाने वह क्यूबिज़म जैसी पुरानी चित्रकला शैली (पर आधुनिक चित्रकला शैली) को नए रूप में ग्रहण करते हुए उसे विस्तार देते हैं। रेखाएं आड़ी-तिरछी हो सकती हैं, पर अपनी दिशा में हैं। वह सीधी एक दूसरे को काटती हुई भी, दृश्यात्मकता पैदा करती हुई। रेखाएँ कटती हैं तो त्रिभुज, चतुर्भुज, बहुकोण बनाती हैं, जिनके बीच से हम दुनिया देख सकते हैं। उसी दुनिया में फैला हुआ ग्रामीण प्रांत है, जहाँ विविध रंगों की हरीतिमा है। उनमें ग्रामीण भूदृश्य की छवि है, जो हमें अपने अतीत में ले जाते हैं। जो स्मृतियाँ नगरों में आकर धूमिल व विस्तृत-सी हो गई हैं, उजागर हो जाती हैं और कई बार हमें उस उदासी तक ले जाती हैं कि हम कहाँ होते थे, हमारे चारों ओर हरीतिमा, चिड़िया, बाग-बगीचे आदि हुआ करते थे, आज नगरों में हम कंक्रीट के जंगल में हैं, जहाँ हरियाली के नाम पर लगाए गए पेड़-पौधों की, किस तरह धूल, पेट्रोल और आज के प्रदूषण ने, हरीतिमा ही हर लिया है, इस पर भी ध्यान देने की फुर्सत नहीं है। अवधेश के नए काम उनकी नई संभावनाओं को सामने लाते हैं।
हम गौर करें तो हल्के-गाढ़े रंगों के बीच एक बचपन भी खिलता और खेलता दिखाई देगा। वहाँ कागज की नाव है, घिर्नी है, पतंग है, मेहराब है, झाड़ियाँ हैं और वर्णाक्षर सीखने वाले बच्चों के लिए ब्लॉक और गुड्डे। यानी वहाँ एक अबोध और उत्सुक दुनिया है, साथ ही स्मृतियों में सोए हुए मेले के वे दृश्य, जिन्हें अब आधुनिक हिंसक बाज़ारवाद के नए बाजारों-मालों ने ले रखा है। इन सब को दिखाने के लिए अवधेश ने रंगों का बहुत सलीके से प्रयोग किया है। धूसर व चटक, पर आँखों और दिमाग पर एकदम से आक्रमण करने वाले नहीं। रंगों की यह आत्मीयता अवधेश के काम में धीरे-धीरे विकसित हुई है, शायद इस एहसास के बाद कि केवल रंगों और अमूर्त अभिव्यक्ति के बाहर जो दुनिया है, वही हमारी वास्तविक दुनिया है। अमूर्तन तो एक दशा है जो भौतिक जगत की हर रचना में अवश्यभावी है। यथार्थ में भी एक अमूर्तन है पर वह तब जीवन-जगत से परे हो जाता है जब केवल उसे और उसे ही अपने काम का आधार बनाते हैं। ऐसे काम का जो चाहे, जैसा और जितने संदर्भों में अर्थ निकाल ले, यहाँ तक कि ऐसे कामों के चित्रकार या चित्रकार बिरादरी अपने-अपने ढंग से ही अर्थ निकालते रहे हैं। यूँ तो चित्रकला की एक निश्चित और सुपूर्ण व्याख्या और अर्थ-विश्लेषण संभव नहीं होता, ऐसा दुस्साहस किया भी नहीं जाना चाहिए, पर सामान्य स्थितियों में हर तरह की रचना का एक अर्थ व उद्देश्य होता ही है। मोटे तौर पर उसे लोगों के सामने लाना इसीलिए जरूरी होता है कि रचना का जीवन व समाज में प्रवेश जरूरी है, बिना उसके रचना निरर्थक है, क्योंकि उसकी सामाजिक भूमिका बन नहीं पाती। स्वांतः सुखाय रचना का कोई खास मतलब नहीं बनता।
इस तरह से सोचते हुए मैं अवधेश मिश्र के चित्रों में एक डिपार्चर देखता हूँ जो जीवन के काफी निकट है और वहाँ समाज के तमाम उपकरण मौजूद हैं, इसीलिए अब वे हमारे पास लगते हैं। सरल रेखाएं - एक-दूसरे को काटती हुई कई तरह मानवाकृतियों का आभास भी देती हैं। वह आभास है स्थूलता का, जो हमारे पड़ोस की लगती है। यही वह जरूरी अमूर्तन है, जो चित्रकला में जीवित होना चाहिए।
अवधेश के काम का टेक्चर पहले से, पिछले दो सालों में इस मानी में भी बदला है कि जीवन के जरूरी यश, उल्लास व निराशा या जीवन जगत की काली, उजली स्थितियों को वह रंगों के माध्यम से लाना चाहते हैं। बहुत सारे काम हैं, जिनका एक हिस्सा पूरी तरह काला है और दूसरे हिस्से में हरीतिमा भी है, प्रेम का लाल रंग भी है, शांति का हल्का नीलापन व सफेदी भी है, साथ ही आकृतियाँ व बचपन का एहसास भी है । यानी निराशा और जीवन दोनों ही के रंग व स्थितियाँ अवधेश के काम में मौजूद हैं, इसीलिए वहाँ गति और प्रकाश मौजूद है।
इस तरह हम देखते हैं कि चित्रकार अवधेश मिश्र अनंत संभावनाओं के साथ काम कर रहे हैं। उनके काम में जो विविधता आ रही है उसके कारण हो सकते हैं, उनकी स्वाभाविक स्थितियों से पहचान का घना होना, अनुभव का परिपक्व होना और आज के समय व बाजार की आपाधापी को देखते हुए अपने आप को उसके लिए तैयार करना, क्योंकि आज वह देख रहे हैं कि चित्रकार अपने मित्रों, वरिष्ठजनों को भी अपना एकाध काम भी भेंट कर देने की बजाय अपना समूचा – का - समूचा किसी “गैलरी” को दे देने के लिए तत्पर उत्सुक, तैयारी करते दिखाई देते हैं, क्योंकि “गैलरी” - मालिकों के पास बाजार है, अपने स्रोत व संपर्क हैं, जिनके आधार पर वह लाखों-करोड़ों का व्यापार कर रहे हैं । आज हर चीज बाजार में जाने को तत्पर है – यहाँ तक कि मनुष्य भी, चित्रकार ही क्यों पीछे रहे, क्योंकि संभ्रांतता व आधुनिकता ने तो चित्रकला को ऐसे ग्रहण किया है कि उसे संग्रहालयों से लेकर, शयनकक्ष, मॉल्स की दीवारों, भवनों और होटलों... तक में पहुँचा दिया है । इन सब जगहों पर अवधेश मिश्र को भी अपने अस्तित्व के लिए पहुँचना ही चाहिए पर अपनी कला की मूल चेतना को बनाए रखते हुए और अवधेश के अब तक के काम को देखते हुए लगता यही है कि उनमें एक चित्रकार की मूल चेतना बची हुई है, उसके प्रति वह सतर्क भी हैं । उनका यही पॉजिटिव उन्हें बड़ा चित्रकार बनने की राह प्रशस्त करेगा । [आधारशिला, नवंबर-दिसंबर 2008, नैनीताल]
अनिल सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार/लेखक, लखनऊ, 2008
अपने समय से मुठभेड़
कैंडिंस्की ने लिखा है – “सभी कलाओं में अमूर्त चित्रकारी सबसे मुश्किल काम है। अमूर्तता की माँग है कि आप रेखांकन में कुशल हों, संयोजन और रंगों के प्रति आप में गहरी संवेदनशीलता हो और यह भी कि आप एक सच्चे कवि हों। कवि होना अमूर्तता की अनिवार्य शर्त है।”
अमूर्तता जीवन के गहरे क्षणों में उतरने की वह विधि है, जिसमें हम अपने को खोकर कुछ पाने की तड़प के साथ होते हैं। जीवन के राग और संसार की लय के बीच अवरोधों का जो परिदृश्य है; उसे अपने ही भीतर महसूस करना और उसे अपने समय के कैनवास पर बरतना ही वस्तुतः वह प्रतिभा है, जो कलाकार को भाव विपुल करती है तथा उसको एक समानांतर संसार रचने को प्रेरित करती है। अवधेश मिश्र मूलतः चित्रकार हैं; अमूर्तता उनकी चित्रकला की विशेषता है। उनकी अमूर्तता प्रकृति, जीवन और लोक राग से विन्यस्त होकर रंगों के संचरण से एक ऐसा विश्व रचती है, जिसमें आप अपने समय के विक्षेप को गहराई से दर्ज हुआ पा सकते हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में उनके तीस रेखांकनों की शृंखला ‘विस्थापन’ को देखें, तो लगता है जैसे अवधेश ने अपने समय और जीवन को उसकी पूरी प्रक्रिया में पकड़ने की चेष्टा की है। इनमें व्यक्ति के विस्थापन से जीवन के विस्थापन तक की अनवरत यात्रा है। यह यात्रा जितनी व्यक्ति के भीतर की है उतनी ही व्यक्ति के उसके बाहर की। गौर से सुने तो रेखाओं के वर्तुल में हाहाकार है और आपके भीतर तक उतरती अनुभूति में कँपा देने वाली ध्वनि। हाहाकार इतनी तीव्रता में है कि आपकी ओढ़ी गई शांति दूर जा छिटकती है, आप अपने को हाहाकार के बीच में पाते हैं - एकदम शून्य पराजित और निस्पंद। जब निस्पंदता आपको घेरती है तो अन्तर से उठने वाली धुन आपको सचेत करती है, स्मृति और जागरण के संयोग से आप भुला दिए गए क्षणों में लौटते हैं; तब आप बदले से लगते हैं, आप में परिवर्तन लक्षित होता है।
इस श्रृंखला का प्रस्थान वह रेखांकन है जिसमें व्यक्ति का सिर हवा में टँगा है। उसकी आँखें नहीं है, चेहरा इतना विकृत है जिससे आप सही व्यक्ति का अंदाजा भी नहीं लगा सकते। वह बस; एक व्यक्ति है, आज के आपाधापी भरे समय का शिकार और स्वयं साक्षी भी। इसके अतिरिक्त श्रृंखला के अन्य सभी रेखांकनों में कहीं गहरी बावड़ी, कहीं भयावने कोटर, कहीं पथ में घिर आए सर्पाकार झुरमुट, कहीं आँखों को बेधते सूत्र, कहीं विस्थापन में पसरी भयावह उदासी और कहीं कंकालों की मानिंद उभर आई मानवाकृतियाँ अवधेश की सूक्ष्म संयोजनशीलता को कुशलता से अभिव्यक्त करती हैं। यहाँ रेखांकनों में गहरी अर्थमयता है, जो समय की मार को अनेक स्तरों पर उठाती है। व्यक्ति आज अपने से विस्थापित है। देह और मन दो धड़ों में विभक्त है। बाहर से जीवन विस्थापित है। समय को बाजार चला रहा है और बाजार को वह शक्तियाँ नियंत्रित कर रही हैं, जो प्रकृति, जीवन और मनुष्य की शत्रु हैं।
अवधेश के इन ड्राइंग्स [रेखांकनों] के अनेक अर्थ हो सकते हैं, सबको अपने ढंग से इनके अर्थ करने की छूट भी है; पर जब इनके स्पेस में दाखिल होंगे तो निश्चय ही आप की इनकी कल्पनाशीलता में परिकल्पना के उन तत्वों से मुठभेड़ होगी, जो आपको लगातार मथते रहते हैं, आपको मानसिक फुर्सत नहीं लेने देते। देह स्वस्थ होकर भी जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में निष्क्रिय और बीमार रहती है, ठीक वैसे ही यह रेखांकन हमारे मानसिक उद्वेलन को एक स्थैतिक बिंदु पर ला टिकाते हैं, जिसकी ज्यामितीय संरचना में मिलकर हमें लगता है कि हम सबके ‘आत्म’ और ‘जग’ से विस्थापन का यह एक रूप है; बल्कि कहना चाहिए कि दृश्यावली है – कितने-कितने स्तरों पर हम टूटते हैं, खंडित होते हैं; उन सब का अक्स यहाँ उभरता है। अवधेश के इन रेखांकनों में एक संतुलन है, नपी-तुली रेखाओं में स्पेस का सृजन और मोटिव्स का इस्तेमाल भी करीने से हुआ है; पर सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि इनमें कविता जैसी तरलता और आवेग है। आप इन रेखाओं के धुंधले बिंबों में भी जीवन की जटिलता को देख सकते हैं, कोई सूक्ष्म-सी रेखा आप के अन्तर में उभर कर कौंध सकती है, आप तिलमिला सकते हैं, आप इतना कराह भी सकते हैं, गोया कोई नश्तर आपके जिगर के पार हो गया हो।
‘विस्थापन’ की इस श्रृंखला से अवधेश का नया रूप उभरता है। एक चित्रकार और समीक्षक से अलग उनकी रेखांकनकार की यह छवि न केवल आश्वस्त करती है, बल्कि आने वाले समय में उनकी संभावना का पता भी देती है। एक कलाकार के रूप में अवधेश निरंतर प्रयोग के हामी रहे हैं, जोखिम जैसे उनकी प्रकृति में है, वैसे ही उनके कामों में भी। वह बाजार, वस्तुवाद, अर्थप्रधानता जैसे अंतरराष्ट्रीय वृत्तियों से न तो आक्रांत हैं और न ही इन्हें लेकर उन्हें कोई भ्रम है। अगर होता तो समय की तल्ख सच्चाइयों से वे रू-ब-रू न होते - उनकी सही शक्ल को सामने ला पाने में इतने समर्थ भी न होते। कहना चाहिए कि ‘विस्थापन’ की इस श्रृंखला से अवधेश ऐसे एक भावप्रवण कलाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं, जिसके हर तूलिकाघात में समय की नब्ज पर टिकने की ताकत है। आज के दौर की आपाधापी को विदीर्ण करने की क्षमता और अपने को संपूर्णता में पाने की अदम्य आकांक्षा; जिसे हम सब ने कहीं न कहीं खो दिया है। यह श्रृंखला युवा कलाकार अवधेश को बड़ी उम्मीदों पर खड़ी करती है, जिसमें हम भविष्य की सूरत देख सकते हैं। ( पुस्तक : रूपंकर, समकालीन कला विमर्श, 2006 )
डॉ ज्योतिष जोशी, ललित कला अकादेमी, नई दिल्ली 2006
The Power of Suggestion in Awadhesh Misra
Awadhesh Misra paints in abstractions. Many artists do that but as an artist he has developed the unique quality of suggestion through these very abstractions.. This quality impregnates his abstract canvas with meaning. It invokes understanding at one level and at another level it hands over symbols and forms to the viewer that create feelings, generate memories. The process establishes a relationship between his art and the viewer. Perhaps this is what Abhinav Gupt, the ancient Indian Aesthetician meant when he discussed the value of ‘Rasanubhuti’ in art. As Abhinav Gupt puts it, every art, be it painting, music or performance, should be able to invoke a feeling in the ‘Rasik’, the art lover. Using this classical parameter, that stands true today too, one can say with impunity that Awadhesh’s paintings speak to people and they establish a dialogue. This dialogue is ever new for there is scope for different interpretations. He uses work a day symbols in the middle of pure abstractions. The paper ‘Phiraki’, the kite, the moon and the sun, the colourful strings of buntings, a paper boat or an aeroplane or alphabets are images that one picks up in childhood and their emotive power stays life long. It is through these images that one can be transported to a world of innocence when imagination could sway one to lands unknown. It is because of this power of suggestion that his acrylic and oil paintings become very appreciable.
Awadhesh’s use of colour is sensitive. It always progresses gradually- from darker to lighter or visa versa. Many of his works use single shades of one color moving between multiple variations, though he uses different yet assimilative colour pallets too. In both type of choices he is able to uplift one’s spirit. As he himself admits, he aims to create happiness and positive emotive appeal through creation of colour spaces, symbols and association of forms with them. The first visual impression of his work may suggest total abstraction and it is surely close to cubism. Yet soon enough, the forms take over and a certain meaning begins to emerge.
There are geometrical forms floating on a colorful palette. With the configuration of these forms he creates windows that peak into the memory lane. One wonders if these are his personal memories of a childhood spent in the village where life used to be celebrated through rituals, festivals and fairs. Yet these very personal memories touch a collective memory too where these images are a part of every individual’s psyche. These associations make his work appealing for the connoisseur as well as the casual onlooker. All at once, his work becomes general as well as universal. All the canvas have, what one critic has termed ‘tonal gradations.’ Some have texture. It is in his latest work that he creates a tactile quality through texturing. There is flow in his work. His forms are suspended in a sky of colours.
His extensive educational qualification must have helped him in putting together different levels of symbolic images, abstraction, and work a day forms in colour. It is not easy to pin down the creative process of an artist into simplistic terms as human mind can work at different levels. The mind of an artist does not work through analysis - it works through visual imagery. The success of an artist depends on how well he is able to evoke, create or convey meaning to the public at large for painting is visual art. Awadhesh, the artist is able to do that. His painting is a cohesive act of creation with essential emotive power.
Mridul Bhasin, Jaipur, 2009
Awadhesh Misra And His Timeless Companion
Art is about the visual experiences that the artist goes through every moment in his life. These experiences carry along specific memories and the sub- conscious mind registers images of those moments. The art works are thus closer to the heart of any artist. They are virtually the visual treat because they are experienced and expressed visually from life and from surroundings as well as nature directly.
This stands true in the paintings and drawings of Shri Awadhesh Misra who has enlivened with space where he was born, in the space where he was brought up or the space where he was educated. Now these spaces are his personal spaces from where emerges exposure of life from the simple rural life to the modern urban life, providing a potpourri of confused, complicated or a simple life material. He is equally aware of the circumstances that create social diverse imagery. There is, therefore, a strong visual language that he creates for himself and for others to experience. It is more like making friendship through his art evolving painted dialogues. He delineates through the symbols he discovered from his memory store without forgetting the Vizooka (Scare Crow) from the fields - his childhood companion in his village which stands right in the middle of the field as a protector- an abstract existence not only for the fields or the farmers or the birds but also for the passers by. One may identify such an imagery with the self in abstention, with a face, arms and the shirt hanging on the cross of a bamboo stick. The Vizooka is a timeless symbol in existence for centuries from one generation to the next. As a matter of fact, it is the symbol of continuation and qualifies its existence even into the fourth dimension of time.
Vizooka is his main actor in his paintings representing people from all walks of life. It is the mouthpiece of Awadhesh, presenting acts on his behalf – whether as a politician or a policeman, a dancer or a musician. The Vizooka even makes its appearance on the laptop to upgrade its presence in the modern world and even creates a whirlwind dance item – an outcome of memories of folk dances performed in the village on various occasions. We have a very colourful folk tradition which has always inspired the painters and the musicians of this country from the times immemorial and with the rural background of Awadhesh; the inclination comes as a natural outcome.
Awadhesh however does not name his paintings but prefers to call them compositions – a general tag to all his works. He prefers the viewer to enjoy the pure visual experience of colour , space and form first and interpret and understand if need be the content part. I think his vizooka is clever enough to entertain the viewer like the joker of a circus who carries strong emotional experiences behind his colourful masks. Behind Vizooka’s arrival there were his earlier intricate abstracts of several years with circles, squires or triangles creating movement into spaces, at times constructing a structure of dreams. The capacity to create a new personal world is visible in his paintings and one really has to live in it to enjoy.
Awadhesh has his likings and disliking put together in terms of icons, symbols or the vizooka and impasto, or like kites, women or Benaras with spiritual flavour. It is like making a statement at the opening of the play by the sutradhar, who wishes to speak about the happenings on the stage. The stage is full of glittering lights of different colours falling on the space and on the characters. His paintings, therefore, have the brilliance of colours but at the same time adequate enough to bring out the essentials of the theatrical nuances in his paintings. He does not indulge into the use of many colours in his compositions rather prefers to make a simplified portrayal with a couple of colours of the same family, like red & orange with brown or light green with dark green or blue with mauve but then his interest is more in the visual language that he wishes to convey. As stated above the light also plays an important part in his paintings whether in terms of creating illusion of space or to highlight the main incumbent of his work. The structure of his compositions, too, is in the vertical and horizontal metrical. That makes the subject thus portrayed more simplified for viewer to interact with convenience.
One has to also see the dedication behind his paintings and for that his black and white effortless drawings are to be viewed seriously. The contents of his drawings have the illusive character of space of another world bound with a certain creative gravity. We often enjoy such forms either in the deep sky or images in the moving water without looking for their meaning. His drawings have similar unknown pleasure in them except that these are drawn with the clarity of experience of years at the back of him and are not just accidental images. As a matter of fact the drawings form the very basis of all workouts of an artist and confirm his command on his creative outcome.
Coming from a small village of Faizabad to Benaras and then to Lucknow- the two big cities, Awadhesh has built his own vocabulary of ideas and thoughts that he often, when instigated, does speak in his works . But then those are sentimental attachments as if one is talking about his brilliant siblings, who were raised and brought up with love and care. One has to understand these personal and worldly experiences that an artist goes through and finally arrives at. The art of Awadhesh Misra is, therefore, has its own beauty, which has emerged because it belongs to the creator and the viewer and giving them immense pleasure at all times.
M.K.Puri, Artist/ Art Critic, New Delhi, 2011
Art Is The Way
There is no way to art. Art is the way. 'The Way' is the term uses in the philosophy of Tao to symbolize 'The God'. In this way, art, for Awadhesh Misra, is not the way of talking but the way of living. I have been witnessing his way of life for almost one decade and more. So I can realise the evolution of his finer, sub-atomic elements which sing the song of his aesthetic life resides in his soul.
Primarily he is an aesthete, sahridaya, if I use the accent of great sage Bharata, used in his magnum opus Natya Shastra. His eyes look at 'what is' niskala, nirguna, abstraction. In the late 90s, I had appreciated his abstract line- drawings and paintings where his soul tried to colour it by the sub-atomic elements in order to maintain what is nirvastuk (unlike amoorta), not what is saadrish. The blue, the green, the red, all go in different spaces but in an all-inclusive manner. Actually his eyes are sight and his soul is perspective. He never tries to comprehend. He simply flows. One can not find out him in his art work on the level of empiricism i.e. only on the basis of experience and observation, no one can evaluate the art of Awadhesh Misra in the sense of a subjective reality.
His perspective is the way to look into the inner layer of skin of the on-going physical activity of daily life, the anthropomorphically imagined god, dark impulses and so on. He never seems restless outwardly but all the time depressed creatively, quintessentially. His proliferating mood resuscitates his delayed being. He can infer the orange tone of serenity. These are the things we find in his art process, regardless his final art representation on canvas.
Aesthetes feel invigorating in galleries by going through his canvas one after one with a grave silence. He too speaks soft and sense without any pause in silence. His latest colour tones in new works are the examples of deconstructed varnikabhang. Art schools must study these new vistas to heal the artistic frustration of a tormented mood usually find in visual artists in India.
Though his recent works are before me as young attempts but maturity has its own intrinsic face to show the way to look into it. One of these works is no doubt outstanding, that is 'Composition Three'. Similarly, some other works, oil on canvas (120 cm height and 120 cm width), like Composition 16, 2007, 17, 18, 21, 22, 23, 24 and 25-all are the poetic colours of celebrations. I re-cognise the much talked work of Braque by seeing composition 17. After Raza, what, most of the artists ask and now I can say, the answer is, here it is, the Composition 18. In Composition 21, you can come across what we can say, abstract red. Similarly in 23, abstract yellow is there. In 25, brown of goodness explores the third meaning of red and yellow as well. Composition 22 is debatable. At the same breathe, drawing 1 and 2 (ink on paper, 36 cm-36 cm) are the plastic interpretations of this cerebral artist.
His way determines the sole cause to create a painting.
Dr. Gautam Chatterjee, Art Connoisseur, Art Critic-The Hindu, Varanasi, 2007
Awadhesh Misra- A Compelling Art Journey
The artist refuses any attempts for explanation for he feels it is a reductionism, a possible theoretical and imaginative incarceration. His work which he calls drawings has myriad tonal quality almost textured, almost like etchings almost reminiscent sometimes of Goya sometimes Munch sometimes the Russian masters and all the wonderful & myriad influences, philosophical and artistic which his mind has osmosed in Lucknow, Banaras & internationally.
Awadhesh's work is compelling. His work if can be discovered is discovered and slowly you find newer significance every time you see it. "I have consistently tried not to fall into a mould" says Awadhesh. "My medium is painting and my instruments for execution have never been conventional, from roller to fingers to crushed napkins I use everything to give the fascinating textures which characterize much of my work."
Awadhesh Misra's drawings are lavished with great detail. There are no bold strokes of an ambitious flourishing mind but a pensive controlled _expression.
These drawings are remarkable for they have an ethereal smoke like quality yet there us a denseness and sense of protest in them, characteristic of his other work in painting & mixed media.
Awadhesh is a mild mannered smiling young man, deceptive, he is a rebel. He has as an artist, as an editor of an art journal, as a teacher, conducted himself with grace and responsibility but when his spirit is challenged he has protested and broken away.
The "Red Dot" in most of his drawing is a structural device to highlight, but this could also be a "leitmotif" of a meditative 'angst'. The strings in some of his work holding the fragile forms are compelling.
Awadhesh's drawings like his paintings do not exceed the frame, they are disturbing but not judgmental. One cannot look at his work with "disinterested attention" for long. His work is not a symbolization as exemplification of a pre-existent though it stands on its own, unified but not cold and self contained. It is an invitation, an invitation to partake in a journey of self construction.
Prof. Rakesh Chandra, Lucknow, 2003
Symbolic Edges
Awadhesh’s art expression can ‘clean bowl’ you, if you view those compositions on the abstract or cubist’s language mould and time bound. He displays many meaningful symbols on the merging edges. There is a visual harmony on the color combinations and compositional sensibilities. No canvas offers sudden jerks and shocks on the journey of color combinations. He travels gradually from lighter to darker hues or other way. If he chooses brown tone for one canvas, the whole palette mix will be on the lighter yellow to darker brown. Similarly purple hue does not mix with green tones. There is a perfect sensibility of color choice. Abstract language and cubist forms seem to be choice of vocabulary alone for forming the visual statements. Misra’s expressions open many directions to think. His visual statements are on certain themes and talk about the Indian rural landscape, festivals and rituals. His compositions are communicating the pleasantness of unbound and open nature and the mutual relation of life with it and within it. One becomes emotional on expressing the life of one’s own native place and landscape, feels boundless happiness while memorizing their land’s culture and practices. It becomes hard to find analogy to explain that unbound happiness. That emotional communication searches a language that can express the similar formlessness and abstraction in communicating those boundless feelings.
Geometric symbols like circles, squares etc keep appearing in his compositions. They are not suggesting the meanings of those painters choice who talk about the figures of Tantric -Bindu etc. These symbols are not even to fallow the cubist’s language. They seem to be suggestions of peep windows. These windows are suggesting us to view a rural landscape, understand the depths of life. They are suggesting a small piece cut from the larger object to reflect that complete form.
Green fields or birds are suggested by few brush strokes. For eg, a parrot or a blue jay bird may not be a direct suggestion from the figure represented. The pleasantness of its green or blue is spread on the surroundings of that bird. It is to suggest that specific season and the pleasure to sense the essence and colors of that season. There are triangles and longer lines to represent certain figures. They are suggesting the human forms that are probably wandering in the dreamy world or engrossed in their work. Forms appear known as well as unknown figures, relieving themselves from the objective meanings to inform the abstract meanings. Some compositions display half black canvas and another half with colorful forms. Are those compositions suggesting that pain and the pleasure are together, darker night has to fade away to open the window of bright mornings to wish us a wonderful day. Many such abstract meanings are generated from his visual statements. Such abstract meanings suggest that one should travel on a philosophical path to understand the known world to feel that unknown celestial world. His suggestions travel between two opposites and in between two distant codes. Language might offer smooth journey but not the meanings. They make you to swing between the opposite poles. Narrations are embedded in the day to day life experiences but the expressions are sensuous.
He is a writer too. Speaker or writer perceives an object and interprets to communicate in verbal language. That interpretation searches a reasoning and evidence to explain. Art expression is an expression of emotions and feelings. That does not fallow any reasoning. There is always a search to express the exact emotion that might go beyond the rational and defined grammar. Amazingly Awadhesh can shift his expression on brain chambers from reasoning to unbound emotional communication. Rationality is one such strong element and influential always searches the evidence even at the sub conscious levels. A writer in the Misra too is searching for that. His rationality very well settled on the abstract language to express the unbound essence of the true nature but not offering a visual feast of that rural landscape of one’s memories. That has occupied the back layers on the expression. If we classify our appreciation towards his compositions, that has three categories. Rural life and open fields as an object taking the back seat, middle layer of appreciation should be given to that feeling of unlimited nature in one’s perception and priority appreciation should be given for abstract language.
There is a pun in his painting compositions. He is explaining that other world through the ‘absence-presence’ and negation methodology. Absence of form itself is suggesting various meanings. Choice of abstract language and not opting for titles for the compositions is symbolic. This is a specific way of ‘philosophizing’ the mediation of meaning. That is mediated through the absence of form on the screen of imagination. Here the negation of form on the abstract visualization is superior to completing the form. Not presenting the objective figures, are creating more impact than the presence of forms. Negation of figure is withdrawing the vocabulary of real and objective world. That is playing a double strength to know the fuller picture for imagination and craving to know further on that abstract world. There is an edge and shadow on such kind of expression to stress the sensuality, spirituality while creating such visual dialectics. Misra’s abstract language is to suggest the ineffable to renounce the aesthetic by playing lesser attention to pictorial to create the dreamy world.
Balamani M, Baroda, 7th Jan.2007
KALIEDOSCOPIC CONFIGURATIONS: ABSTRACTS OF AWADHESH MISRA
His works take you through a journey, a journey laden with vibrancy of Indian colours and alluring magnetism of its sights and sounds. His speaking lines are energized through short patterned strokes evoking imagery of juggernautical tactile textures that conjures up as ropes, straw beds or canonic iconic forms as ganesha, etc. His abstract compositions are cathartic in nature incorporating the empirical experiences that the artist has gone through. This is Awadhesh Misra who through his artistic journey initiating in early 90’s through figurative mediation, has gradually transited towards abstraction. The concerted efforts, towards constituting the configuration of his abstraction bear the trace of his personalized creative strokes coming through powerfully in his present series of works.
His abstracts are gestural and they strongly echo the pictorial structures of artists as diverse as Paul Klee to Post Painterly American abstractionists. The duality of organicity and geometricity in the cluster of his forms and shapes typifies a restlessness of the artist’s persona. Nevertheless what is remarkable is the power of his frames exuding the tangibility of mysterious yet spirited forms evolved through his constant performative exercise with lines. Lines seems to be his pictorial voice, though he has moved across a spectrum of mediums as drawing, water colours, acrylics, oils and mixed media to provide a specter of his creativity.
His compositions are grounded in geometricity with playful juxtapositions of circles and squares and other geometric shapes evoking romantic notions of limpid imagery and evocative human metaphors. The strongly worked out textures in whites and other typically Indian colours as the kumkum reds, mango greens, water blues, haldi yellows marks it as salient to his works. The brushstrokes are characterized by a fuzziness that is also a reflection of his drawings bearing the weight of its textures. The compositional layout is choreographed to be either vertical or dominantly horizontal emphasized by zones of colours that vivify it.
If anything, the dominant problematic for Awadhesh is the space which he attempts to articulate as primarily decorative or two-dimensional. This he has attempted to resolve through the reckoning complexity of forms and imageries as well the textured brushstrokes. Though he makes valiant attempts towards the creation of total abstraction, the imagery pushes through with wild abandon, and to which he seems to have no control allowing it to be. The residue imagery integral in his works can be attributed to his travels and experiences, and enveloped by the teeming millions of humanity, unabling/disabling him towards creations that are only the play of lines, forms, colours and shapes or in Greenbergian terminology autonomous without referencing culture.
Awadhesh’s oeuvre from his “Banaras Series” to the present abstracts bears consanguinity. That is, the implicit abstraction of his architectural forms from realistic renderings to aesthetic fragmentation of it is apparent in the present series. The Benaras Series carries resonance of Ram Kumar’s works, and the apparent haunting ambience and eerie feel could be attributed to lack of human figure in his works. Since architecture with its juxtaposition of geometric shapes lends itself to essential reductionism, it was only a question of time before the artists transiting to abstraction.
His well thought out frames exudes authority commanding the viewer to establish and initiate a dialogue with it, laying this quality to the virtuoso brushstrokes, which is firm and confident. They provoke a feel of ‘Indianness’ primarily through the articulation of certain geometric shapes as triangles and circles that become metaphoric extension of tantric yantras, opening the space in his works to bear the weight of Indian ethos. In the postmodern Indian milieu, the tradition and its recall still remain very strong force, enabling creative acts that remain largely localized within a globalized setting.
Prof. Ashrafi S. Bhagat, Chennai, 2006
Awadhesh Misra’s Paintings
He combines recognizable imagery with cubist structure and simplicity of abstraction in his paintings. He prefers somber colours, thus shapes get formal prominence due to tonal gradations and contours. Browns and range of grays with bluish tinge, highlighted with yellow touches impart a musical cadence to the paintings [ Music, incidentally is his second love]. There is a juxta position of vertical and curved elements generally leading to a kind of arrangement of calmness and equilibrium, held together by some kind of a central force. The emerging pictorial structural can again be understood by analogy of the musical form, which is based on the rising and lowering of the musical pitch of sound-notes. The paintings appear to be leading toward a direction of some kind of characteristics symbolic forms [notice foot-soles or fish-shaped configuration in some paintings] and we can look forward to such lucid stage in Awadhesh’s work in the near future.
Prof. Ratan Parimoo, Vadodara, 27th December 2001
Awadhesh Misra has proved himself as a promising, energetic and ambitious artist, scholar and an editor of an art journal. One can see his enthusiasm and ability to see his dreams come true, with in short span youthful years. The few works which I was privileged to see, give evidence of his efforts to come to grasp with modern art movement. I hope he will sustain his work to further heights by encouragement of the art connoisseurs and admirers of the country. I wish him success.
Prof. Dinkar Koushik, Shantiniketan, 4th August 2001
Well said ashrafi sir..!
ReplyDelete,🌻🌻🌻
Thanks.
Delete6388431460
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